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Samveda/1530

अग्ने नक्षत्रमजरमा सूर्य रोहयो दिवि। दधज्ज्योतिर्जनेभ्यः॥१५३०

Veda : Samveda | Mantra No : 1530

In English:

Seer : keturaagneyaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : agne nakShatramajaramaa suurya.m rohayo divi . dadhajjyotirjanebhyaH.1530

Component Words :
agne . nakShatram . ajaram . a . jaram . aa . suuryam . rohayaH . divi . dadhat . jyotiH . janebhyaH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : केतुराग्नेयः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : आगे फिर वही विषय है।

पदपाठ : अग्ने । नक्षत्रम् । अजरम् । अ । जरम् । आ । सूर्यम् । रोहयः । दिवि । दधत् । ज्योतिः । जनेभ्यः॥

पदार्थ : प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (अग्ने) ज्योतिर्मय, प्रकाशक, जगन्नायक परमात्मन् ! (जनेभ्यः) उत्पन्न प्राणियों के लिए (ज्योतिः) प्रकाश (दधत्) प्रदान करते हुए आपने (नक्षत्रम्) गतिमय, अपनी धुरी पर घूमनेवाले, (अजरम्) सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक जीर्ण न हुए (सूर्यम्) सूर्य को (दिवि) आकाश में (आरोहयः) चढ़ाया हुआ है ॥द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (अग्ने) राष्ट्रनायक राजन् ! (जनेभ्यः) प्रजाओं के लिए (ज्योतिः) विद्या का प्रकाश और बिजली का प्रकाश (दधत्) प्रदान करते हुए आपने (नक्षत्रम्) गतिमान्, (अजरम्) जीर्णता-रहित (सूर्यम्) विद्या और धर्म के सूर्य को (दिवि) राष्ट्र-गगन में (आरोहयः) चढ़ा दिया है ॥४॥

भावार्थ : जैसे परमेश्वर आकाश में वस्तुतः ही सूर्य को उत्पन्न करता है, वैसे ही जो राजा राष्ट्र में परा विद्या, अपरा विद्या और धर्म का प्रकाश करता है वह भी मानो सूर्य को उत्पन्न करता हैं ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : केतुराग्नेयः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदपाठ : अग्ने । नक्षत्रम् । अजरम् । अ । जरम् । आ । सूर्यम् । रोहयः । दिवि । दधत् । ज्योतिः । जनेभ्यः॥

पदार्थ : प्रथमः—परमात्मपरः। हे (अग्ने) ज्योतिर्मय प्रकाशक जगन्नेतः परमात्मन् ! (जनेभ्यः) जातेभ्यः प्राणिभ्यः (ज्योतिः) प्रकाशम् (दधत्) प्रयच्छन् सन् त्वम् (नक्षत्रम्) गतिमयम्, स्वधुरि परिभ्रमन्तम्। [नक्षत्राणि नक्षतेर्गतिकर्मणः। निरु० ३।२०।] (अजरम्) आसृष्टेरद्यावधि अजीर्णम् (सूर्यम्) आदित्यम् (दिवि) आकाशे (आ रोहयः) आरोहितवानसि ॥द्वितीयः—नृपतिपरः। हे (अग्ने) राष्ट्रनायक राजन् (जनेभ्यः) प्रजाभ्यः (ज्योतिः) विद्याप्रकाशं विद्युत्प्रकाशं च (दधत्) जनयन् त्वम् (नक्षत्रम्) गतिमन्तम्, (अजरम्) जीर्णतारहतिम् (सूर्यम्) विद्याया धर्मस्य च आदित्यम् (दिवि) राष्ट्रगगने (आरोहयः) आरोहितवानसि ॥४॥

भावार्थ : यथा परमेश्वरो गगने वस्तुत एव सूर्यं जनयति तथैव यो राजा राष्ट्रे पराविद्याया अपराविद्याया धर्मस्य च प्रकाशं करोति सोऽपि सूर्यमिव जनयतीत्युच्यते ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० १०।१५६।४।