Samveda/1532
अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम्। अपा रेतासि जिन्वति॥१५३२
Veda : Samveda | Mantra No : 1532
In English:
Seer : viruupa aa~NgirasaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : agnirmuurdhaa divaH kakutpatiH pRRithivyaa ayam . apaa.m retaa.m si jinvati.1532
Component Words : agniH . muurdhaa . divaH . kakut . patiH . pRRithivyaaH . ayam . apaam . revaasi . jinvati .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : विरूप आङ्गिरसः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २७ क्रमाङ्क पर परमात्मा और सूर्य के पक्ष में की जा चुकी है। यहाँ अग्नि-तत्त्व का महत्त्व वर्णित करते हैं।
पदपाठ : अग्निः । मूर्धा । दिवः । ककुत् । पतिः । पृथिव्याः । अयम् । अपाम् । रेवासि । जिन्वति ॥
पदार्थ : (अग्निः) अग्नि ही, शरीर में (मूर्धा) मस्तिष्क है, क्योंकि मस्तिष्क अग्नि- प्रधान है। यही सूर्य रूप में (दिवः) द्युलोक का (ककुत्) राजा है। (अयम्) यही पार्थिव अग्नि के रूप में (पृथिव्याः) पृथिवी का (पतिः) पालनकर्ता है। अग्नि ही (अपाम्) जलों के (रेतांसि) सूक्ष्म अवयवों को (जिन्वति) भूमि से अन्तरिक्ष की ओर और अन्तरिक्ष से भूमि की ओर प्रेरित करता है अर्थात् वर्षा में कारण बनता है ॥१॥यहाँ एक अग्नि का अनेक रूप में उल्लेख होने के कारण विषयभेदनिबन्धन उल्लेखालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ : अग्नि ही सब चेतन-अचेतन जगत् की स्थिति का कारण है। वही आग, बिजली, सूर्य, जाठराग्नि, प्राणाग्नि, वाडवाग्नि आदि के रूप में अनेक प्रकार से विद्यमान होता हुआ हमारा उपकार करता है, जैसा की श्रुति कहती है—एक॑ ए॒वाग्निर्ब॑हु॒धा समि॑द्धः (ॠ० ८।५८।२) ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : विरूप आङ्गिरसः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २७ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे सूर्यपक्षे च व्याख्याता। अत्राग्नितत्त्वस्य महत्त्वमुच्यते।
पदपाठ : अग्निः । मूर्धा । दिवः । ककुत् । पतिः । पृथिव्याः । अयम् । अपाम् । रेवासि । जिन्वति ॥
पदार्थ : (अग्निः) अग्निरेव देहे (मूर्धा) मस्तिष्कमस्ति, अग्निप्रधानत्वान्मस्तिष्कस्य, अयमेव सूर्यरूपेण (दिवः) द्युलोकस्य (ककुत्) राजा अस्ति, (अयम्) अयमेव पार्थिवाग्निरूपेण (पृथिव्याः) भूमेः (पतिः) पालकोऽस्ति। अग्निरेव (अपाम्) उदकानाम् (रेतांसि) सूक्ष्मानवयवान् (जिन्वति) भूमेरन्तरिक्षं प्रति अन्तरिक्षाच्च भूमिं प्रति प्रेरयति, वृष्टिनिमित्तं भवतीत्यर्थः ॥१॥२अत्रैकस्याग्नेरनेकधोल्लेखे विषयभेदनिबन्धन उल्लेखालङ्कारः३ ॥१॥
भावार्थ : अग्निरेव हि सर्वस्य चेतनाचेतनात्मकस्य जगतः स्थितिनिबन्धनम्। स एव वह्निविद्युदादित्यजाठराग्निप्राणाग्निवाडवाग्न्यादिरूपेणा- नेकधा विद्यमानोऽस्मानुपकरोति, यथाह श्रुतिः—एक॑ ए॒वाग्निर्ब॑हु॒धा समिद्धः (ऋ० ८।५८।२) इति ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।४४।१६, य० ३।१२, १५।२०, साम० २७।२. यजुर्भाष्ये दयानन्दस्वामिना मन्त्रोऽयं क्रमश ईश्वरभौतिकाग्न्योर्विषये सूर्यविषये च व्याख्यातः।३. क्वचिद् भेदाद् ग्रहीतॄणां विषयाणां तथा क्वचित्। एकस्यानेकधोल्लेखो यः स उल्लेख उच्यते ॥—सा० द० १०।३७।