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Samveda/1566

पन्यासं जातवेदसं यो देवतात्युद्यता। हव्यान्यैरयद्दिवि (टा)।। [धा. । उ । स्व. ।]॥१५६६

Veda : Samveda | Mantra No : 1566

In English:

Seer : gopavana aatreyaH | Devta : agniH | Metre : anuShTummukhaH pragaathaH (gaayatrii) | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : panyaa.m sa.m jaatavedasa.m yo devataatyudyataa . havyaanyairayaddivi.1566

Component Words :
panyaasam . jaatavedasam . jaata . vedasam . yaH . devataati . udyataa . ut . yataa . havyaani . airayat . divi.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : गोपवन आत्रेयः | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुम्मुखः प्रगाथः (गायत्री) | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में यज्ञाग्नि और अन्तरिक्ष का परस्पर विनिमय दर्शाया गया है।

पदपाठ : पन्यासम् । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । यः । देवताति । उद्यता । उत् । यता । हव्यानि । ऐरयत् । दिवि॥

पदार्थ : (यः) जो यज्ञाग्नि (देवताति) यज्ञ में (उद्यता) डाली गयी (हव्यानि) हवियों को (दिवि) अन्तरिक्ष में (ऐरयत्) पहुँचा देता है, उस (पन्यांसम्) अतिशय आदान-प्रदान का व्यवहार करनेवाले अर्थात् हवि लेकर बदले में आकाश से वर्षा देनेवाले (जातवेदसम्) प्रकाशित यज्ञाग्नि की, मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ। [यहाँ स्तुषे पद पहले से चला आ रहा है।] ॥३॥

भावार्थ : वर्षा के लिए अग्नि में डाली हुई आहुति अग्नि द्वारा अलग-अलग सूक्ष्म अवयवों में विभक्त होकर गरम वायु के साथ ऊपर आकाश में पहुँचती है। तब ऊपर स्थित पवनों में गति उत्पन्न हो जाती है, जिससे मेघस्थ जल-वाष्पों से जब शीतल पवन टकराते हैं, तब वर्षा होती है ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : गोपवन आत्रेयः | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुम्मुखः प्रगाथः (गायत्री) | स्वर : षड्जः

विषय : अथ यज्ञाग्नेराकाशस्य च पारस्परिकं विनिमयं दर्शयति।

पदपाठ : पन्यासम् । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । यः । देवताति । उद्यता । उत् । यता । हव्यानि । ऐरयत् । दिवि॥

पदार्थ : (यः) यज्ञाग्निः (देवताति) देवतातौ यज्ञे। [देवताता इति यज्ञनामसु पठितम्। निघं० ३।१७।] (उद्यता) उद्यतानि (हव्यानि) हवींषि (दिवि) अन्तरिक्षे (ऐरयत्) प्रेरयति, तम् (पन्यांसम्) पनीयांसम्, अतिशयेन आदानप्रदानयोर्व्यवहर्तारम्, हव्यं दत्त्वा विनिमयेनाकाशाद् वृष्टिं गृह्णानम् इत्यर्थः। [पण व्यवहारे स्तुतौ च, तृजन्तादीयसुन्, ईकारलोपश्छान्दसः।] (जातवेदसम्) जातप्रकाशम् यज्ञाग्निम्, अहं (स्तुषे) स्तौमि। [अत्र स्तुषे इति पूर्वतोऽनुवृत्तम्] ॥३॥

भावार्थ : वृष्ट्यर्थमग्नौ प्रास्ताहुतिरग्निना विच्छिन्ना तप्तवायुना सहोपरि गच्छति, तत ऊर्ध्वस्थेषु पवनेषु गतिरुत्पद्यते, येन मेघस्थैर्जलवाष्पैर्यदा शीताः पवनाः संघट्टन्ते तदा वृष्टिर्जायते ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।७४।३।