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Samveda/1672

तद्विष्णोः परमं पद सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥१६७२

Veda : Samveda | Mantra No : 1672

In English:

Seer : medhaatithiH kaaNvaH | Devta : viShNuH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : tadviShNoH parama.m pada.m sadaa pashyanti suurayaH . diviiva chakShuraatatam.1672

Component Words :
tat . viShNoH . paramam . padam . sadaa . pashyanti . suurayaH . divi . iva . chakShuH . aatatam . aa . tatam.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : विष्णुः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा के परमपद के साक्षात्कार का विषय है।

पदपाठ : तत् । विष्णोः । परमम् । पदम् । सदा । पश्यन्ति । सूरयः । दिवि । इव । चक्षुः । आततम् । आ । ततम्॥

पदार्थ : (विष्णोः) सर्वव्यापक जगदीश्वर के (तत्) उस प्रसिद्ध, (परमम्) अति उत्कृष्ट (पदम्) प्राप्त करने योग्य स्वरूप को (सूरयः) विद्वान् उपासक लोग (सदा) हमेशा (पश्यन्ति) वैसे ही स्पष्ट रूप में देखते हैं (दिवि इव) जैसे सूर्य के प्रकाश में (आततम्) फैली हुई वस्तु को (चक्षुः) आँख देखती है ॥४॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥४॥

भावार्थ : भले ही स्थूल दृष्टिवाले लोगों को परमात्मा न दिखायी दे, परन्तु सूक्ष्म दृष्टिवाले विद्वान् स्तोता जन तो उसका वैसे ही साक्षात्कार करते हैं, जैसे सूर्य के प्रकाश में कोई मनुष्य किसी विशाल मूर्त पदार्थ को देखता है ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : विष्णुः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ परमात्मपदसाक्षात्कारविषयमाह।

पदपाठ : तत् । विष्णोः । परमम् । पदम् । सदा । पश्यन्ति । सूरयः । दिवि । इव । चक्षुः । आततम् । आ । ततम्॥

पदार्थ : (विष्णोः) सर्वव्यापकस्य जगदीश्वरस्य (तत्) प्रसिद्धम्, (परमम्) अत्युत्कृष्टम् (पदम्) प्राप्तव्यं स्वरूपम् (सूरयः) विद्वांसः उपासकाः (सदा) सर्वदा (पश्यन्ति) तथैव स्पष्टतः साक्षात्कुर्वन्ति, (दिवि इव) सूर्यप्रकाशे यथा (आततम्) विस्तीर्णं पदार्थम् (चक्षुः) नेत्रं पश्यति ॥४॥२अत्रोपमालङ्कारः ॥४॥

भावार्थ : कामं स्थूलदृष्टयो जनाः परमात्मानं न पश्येयुः परं सूक्ष्मदृष्टयो विपश्चितः स्तोतारस्तु तथैव तं साक्षात्कुर्वन्ति यथा सूर्यप्रकाशे कश्चिज्जनश्चक्षुषा विशालं मूर्तद्रव्यं पश्यति ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।२२।२०; य० ६।५; अथ० ७।२६।७।२. ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिममीश्वरप्रत्यक्षविषये व्याख्यातवान्।