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Samveda/1768

एष ब्रह्मा य ऋत्विय इन्द्रो नाम श्रुतो गृणे॥१७६८

Veda : Samveda | Mantra No : 1768

In English:

Seer : nRRimedhaH vaamadevo vaa | Devta : indraH | Metre : dvipadaa gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : eSha brahmaa ya RRitviya indro naama shruto gRRiNe.1768

Component Words :
eShaH . brahmaa . RRitviyaH . indraH . naama . shrutaH . gRRiNe.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : नृमेधः वामदेवो वा | देवता : इन्द्रः | छन्द : द्विपदा गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४३८ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जगदीश्वर और आचार्य दोनों को कह रहे हैं।

पदपाठ : एषः । ब्रह्मा । ऋत्वियः । इन्द्रः । नाम । श्रुतः । गृणे॥

पदार्थ : (एषः) यह जगदीश्वर वा आचार्य (ब्रह्मा) चारों वेदों का ज्ञाता है, (यः) जो (ऋत्वियः) ऋतुओं का स्वामी वा ऋतु-ऋतु में विद्या की वर्षा करनेवाला है, उस जगदीश्वर वा आचार्य का (इन्द्रः नाम) इन्द्र नाम है। उसके द्वारा मैं (श्रुतः) कीर्तिमान् वा बहुश्रुत किया गया हूँ। उसकी मैं (गृणे) अर्चना वा स्तुति करता हूँ ॥१॥

भावार्थ : जैसे सृष्टि के आदि में चारों वेदों का प्रकाशक, सब ऋतुओं को रचनेवाला परमेश्वर सबके द्वारा पूजा करने योग्य है, वैसे ही वेद-वेदाङ्गों को पढ़ानेवाला, प्रत्येक ऋतु में विद्या की वर्षा करनेवाला आचार्य भी सत्कार के योग्य है ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : नृमेधः वामदेवो वा | देवता : इन्द्रः | छन्द : द्विपदा गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४३८ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र जगदीश्वर आचार्यश्चोच्येते।

पदपाठ : एषः । ब्रह्मा । ऋत्वियः । इन्द्रः । नाम । श्रुतः । गृणे॥

पदार्थ : (एषः) अयम् जगदीश्वरः आचार्यश्च (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् वर्तते, (यः ऋत्वियः) ऋतूनां प्रभुः ऋतुमृतुं विद्यावर्षको वा विद्यते। [ऋतुभिः प्रभुः इन्द्रः। तै० सं० ४।४।८।१। ‘ऋतुमृतुं वर्षतु’ काठ० सं० १९।५। यद्यपि ‘छन्दसि घस्’ अ० ५।१।१०६ इत्यनेन तदस्य प्राप्तमित्यर्थे घस् प्रत्ययो विहितस्तथापि बाहुलकादन्यस्मिन्नर्थेऽपि ज्ञेयः।] (तस्य) जगदीश्वरस्य आचार्यस्य च (इन्द्रः नाम) इन्द्र इति संज्ञाऽस्ति। तेन अहम् श्रुतः कार्तिमान् बहुश्रुतो वा कृतः। तमहम् (गृणे) अर्चामि स्तौमि वा ॥१॥

भावार्थ : यथा चतुर्णां वेदानां सृष्ट्यादौ प्रकाशकः सर्वेषामृतूनां स्रष्टा परमेश्वरः सर्वैरर्चनीयस्तथा वेदवेदाङ्गाध्यापयिता प्रत्यृतु विद्यावर्षक आचार्योऽपि सत्करणीयः ॥१॥

टिप्पणी:१. साम० ४३८।