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Samveda/1830

गायत्रं त्रैष्टुभं जगद्विश्वा रूपाणि सम्भृता। देवा ओकासि चक्रिरे (यु)।। [धा. । उ नास्ति । स्व. ।]॥१८३०

Veda : Samveda | Mantra No : 1830

In English:

Seer : mRRigaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : gaayatra.m traiShTubha.m jagadvishvaa ruupaaNi sambhRRitaa . devaa okaa.m si chakrire.1830

Component Words :
gaayatram . traShTubham . trai . stubham . jagat . vishvaa . ruupaaNi . sambhRRitaa . sam . bhRRitaa . devaaH . okaasi . chakrire. .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मृगः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में सामगान का महत्त्व वर्णित है।

पदपाठ : गायत्रम् । त्रष्टुभम् । त्रै । स्तुभम् । जगत् । विश्वा । रूपाणि । सम्भृता । सम् । भृता । देवाः । ओकासि । चक्रिरे॥ ।

पदार्थ : (गायत्रम्) गायत्री छन्दवाला साम, (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुप् छन्दवाला साम, (जगत्) और जगती छन्दवाला साम, इनमें (विश्वा रूपाणि) दूसरे सामों के भी सब रूप (सम्भृता) समाविष्ट हैं। जो इन सामों को गाता है, उसमें (देवाः) दिव्य गुण (ओकांसि) घर (चक्रिरे) कर लेते हैं ॥३॥

भावार्थ : आठ अक्षरों का गायत्र पाद, ग्यारह अक्षरों का त्रैष्टुभ पाद और बारह अक्षरों का जागत पाद होता है। प्रायः सभी वैदिक छन्द इन्हीं पादों से बनते हैं। इनमें से किसी एक दो या तीनों पादों से गुँथी हुई ऋचाओं पर सामगान करने से गायक के अन्तरात्मा में अनेक दिव्यगुण समाविष्ट हो जाते हैं ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : मृगः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ सामगानस्य महत्त्वमाह।

पदपाठ : गायत्रम् । त्रष्टुभम् । त्रै । स्तुभम् । जगत् । विश्वा । रूपाणि । सम्भृता । सम् । भृता । देवाः । ओकासि । चक्रिरे॥ ।

पदार्थ : (गायत्रं) गायत्रीछन्दस्कं साम, (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुप्छन्दस्कं साम, (जगत्) जगतीछन्दस्कं साम च, एषु (विश्वा रूपाणि) इतरेषामपि साम्नां सर्वाणि रूपाणि (सम्भृता) सम्भृतानि समाविष्टानि सन्ति। य एतानि सामानि गायति तस्मिन् (देवाः) दिव्यगुणाः (ओकांसि) गृहाणि (चक्रिरे) कुर्वन्ति ॥३॥

भावार्थ : अष्टाक्षरः पादो गायत्रः पादः, एकादशाक्षरः पादस्त्रैष्टुभः पादः, द्वादशाक्षरः पादो जागतः पादः। प्रायः सर्वाणि वैदिकच्छन्दांस्येतैरेव पादैः स्थितिं लभन्ते। एतेषु केनचिदेकेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा पादैर्ग्रथितास्वृक्षु सामगानेन गातुरन्तरात्ममनेके दिव्यगुणाः समाविशन्ति ॥३॥