Donation Appeal Download Our App
Choose Mantra
Atharvaveda / 1 / 29 / 1

अ॑भीव॒र्तेन॑ म॒णिना॒ येनेन्द्रो॑ अभिवावृ॒धे। तेना॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्पते॒ ऽभि रा॒ष्ट्राय॑ वर्धय ॥ 1॥

Veda : Atharvaveda | Kand : 1 | Sukta : 29 | Paryay : | Mantra No : 1

In English:

Seer : vasiShThaH | Devta : abhiivartamaNiH, brahmaNaspatiH | Metre : anuShTup | Tone :

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : abhiivartena maNinaa yenendro abhivaavRRidhe. tenaasmaanbrahmaNaspate .abhi raaShTraaya vardhaya . 1.

Component Words : abhi.avartena . maNinaa . yena . indraH . abhi.avavRRidhe . tena . asmaan . brahmaNaH . pate . abhi . raaShTraaya . vardhaya .

Word Meaning :

Verse Meaning :

Purport :


In Hindi:

ऋषि : वसिष्ठः | देवता : अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर :

विषय : राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।

पदपाठ : अ॒भि॒ऽव॒र्तेन॑ । म॒णिना॑ । येन॑ । इन्द्र॑: । अ॒भि॒ऽव॒वृ॒धे । तेन॑ । अ॒स्मान् । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । अ॒भि । रा॒ष्ट्राय॑ । व॒र्ध॒य॒ ॥

पदार्थ : (येन) जिस (अभिवर्तेन) विजय करनेवाले, (मणिना) मणि से [प्रशंसनीय सामर्थ्य वा धन से] (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष (अभि) सर्वथा (ववृधे) बढ़ा था। (तेन) उसी से, (ब्रह्मणस्पते) हे वेद वा ब्रह्मा [वेदवेत्ता] के रक्षक परमेश्वर ! (अस्मान्) हम लोगों को (राष्ट्राय) राज्य भोगने के लिये (अभि) सब ओर से (वर्धय) तू बढ़ा ॥१॥"

भावार्थ : जिस प्रकार हमसे पहिले मनुष्य उत्तम सामर्थ्य और धन को पाकर महाप्रतापी हुए हैं, वैसे ही उस सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के अनन्त सामर्थ्य और उपकार का विचार करके हम लोग पूर्ण पुरुषार्थ के साथ (मणि) विद्याधन और सुवर्ण आदि धन की प्राप्ति से सर्वदा उन्नति करके राज्य का पालन करें ॥१॥ मन्त्र १-३, ६ ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त १७४। म० १-३ और ५ कुछ भेद से हैं। जैसे (मणिना) के स्थान में [हविषा] पद है, इत्यादि ॥

टिप्पणी :१−अभि-वर्तेन। अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति अभि+वृतु वर्तने भवने−घञ् छान्दसो दीर्घः। अभिवर्तते अभिभवति शत्रून् स अभिवर्तः। अभिभवनशीलेन, जयशीलेन। मणिना। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। मण कूजे−इन्। रत्नेन, प्रशंसनीयसामर्थ्येन धनेन, वा राजचिह्नेन। इन्द्रः। १।२।३। परमैश्वर्यवान् पुरुषो जीवः। अभि-ववृधे। वृधु वृद्धौ−लिट्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा० ६।१।७। इति दीर्घः। अभितः सर्वतः प्रवृद्धो बभूव। तेन। मणिना। ब्रह्मणः+पते। १।८।४।, १।१।१। षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्जनीयस्य सत्त्वम्। हे ब्रह्मणो वेदस्य विप्रस्य वा पालक परमेश्वर ! राष्ट्राय। सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च ष्ट्रन्। राजति ऐश्वर्यकर्मा−निघ० २।२१। व्रश्चभ्रस्जसृज०। पा० ८।२।३६। इति षः। राज्यवर्धनाय वर्धय। वृधु वृद्धौ−णिच् लोट्। समर्धय, समृद्धान् कुरु ॥