Donation Appeal
Choose Mantra
Yajurveda / 38 / 4

अ॒श्विभ्यां॑ पिन्वस्व॒ सर॑स्वत्यै पिन्व॒स्वेन्द्राय॑ पिन्वस्व।स्वाहेन्द्र॑व॒त् स्वाहेन्द्र॑व॒त् स्वाहेन्द्र॑वत्॥४॥

Veda : Yajurveda | Chapter : 38 | Mantra No : 4

In English:

Seer : aatharvaNaH | Devta : sarasvatii | Metre : aarchii pa~NktiH | Tone : pa~nchamaH

Subject : English Translation under process. Will be uploaded Shortly.

Verse : ashvibhyaa.m pinvasva sarasvatyai pinvasvendraaya pinvasva. svaahendravat svaahendravat svaahendravat .4 .

Component Words :
ashvibhyaam pinvasva. sarasvatyai. pinvasva. indraaya. pinvasva . svaahaa. indravaditiindra.avat. svaahaa. indravaditiindra.avat. svaahaa. indravaditiindra.avat .4 .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : आथर्वणः | देवता : सरस्वती | छन्द : आर्ची पङ्क्तिः | स्वर : पञ्चमः

विषय : फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

पदपाठ : अ॒श्विभ्या॑म् पि॒न्वस्व॒। सर॑स्वत्यै। पि॒न्व॒स्व॒। इन्द्रा॑य। पि॒न्व॒स्व॒॥ स्वाहा॑। इन्द्र॑व॒दितीन्द्र॑ऽवत्। स्वाहा॑। इन्द्र॑व॒दितीन्द्र॑ऽवत्। स्वाहा॑। इन्द्र॑व॒दितीन्द्र॑ऽवत्॥४॥

पदार्थ : हे विदुषि स्त्रि! तू (इन्द्रवत्) परम ऐश्वर्ययुक्त वस्तु को ग्रहण कर (स्वाहा) सत्यक्रिया से (अश्विभ्याम्) सूर्य्य-चन्द्रमा के लिये (पिन्वस्व) तृप्त हो, (इन्द्रवत्) चेतनता के गुणों से संयुक्त शरीर को पाकर (स्वाहा) सत्यवाणी से (सरस्वत्यै) सुशिक्षित वाणी के लिये (पिन्वस्व)संतुष्ट हो, (इन्द्रवत्) विद्युत् विद्या को जानकर (स्वाहा) सत्यता से (इन्द्राय) परमोत्तम ऐश्वर्य के लिये (पिन्वस्व) संतुष्ट हो॥४॥

भावार्थ : जो स्त्री-पुरुष विद्युत् आदि विद्या से ऐश्वर्य की उन्नति करें, वे सुख को भी प्राप्त होवें॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : आथर्वणः | देवता : सरस्वती | छन्द : आर्ची पङ्क्तिः | स्वर : पञ्चमः

विषय : पुनस्तमेव विषयमाह॥

पदपाठ : अ॒श्विभ्या॑म् पि॒न्वस्व॒। सर॑स्वत्यै। पि॒न्व॒स्व॒। इन्द्रा॑य। पि॒न्व॒स्व॒॥ स्वाहा॑। इन्द्र॑व॒दितीन्द्र॑ऽवत्। स्वाहा॑। इन्द्र॑व॒दितीन्द्र॑ऽवत्। स्वाहा॑। इन्द्र॑व॒दितीन्द्र॑ऽवत्॥४॥

पदार्थ : (अश्विभ्याम्) चन्द्रसूर्य्याभ्याम् (पिन्वस्व) तृप्नुहि (सरस्वत्यै) सुशिक्षितायै वाचे (पिन्वस्व) (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (पिन्वस्व) (स्वाहा) सत्यया क्रियया (इन्द्रवत्) इन्द्रं परमैश्वर्यं विद्यते यस्मिंस्तत् गृहीत्वा (स्वाहा) सत्यया वाचा (इन्द्रवत्) चेतनात्मगुणसंयुक्तं शरीरं प्राप्य (स्वाहा) (इन्द्रवत्) विद्युद्वत्॥४॥

अन्वय : हे विदुषि स्त्रि! त्वमिन्द्रवत् स्वाहाऽश्विभ्यां पिन्वस्वेन्द्रवत् स्वाहा सरस्वत्यै पिन्वस्वेन्द्रवत् स्वाहेन्द्राय पिन्वस्व॥४॥

भावार्थ : ये स्त्रीपुरुषा विद्युदादिविद्ययैश्वर्यमुन्नयेयुस्ते सुखमपि लभेरन्॥४॥