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सामवेद का सामान्य परिचय :-

सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा इसका ज्ञान आदित्य ॠषि को दिया गया था।

वैदिक वाङ्मय में सामवेद का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । गीता (१०.२२) में श्रीकृष्ण ने स्वयं के लिए सामवेद कहा है---"वेदानां सामवेदोऽस्मि।"  इस वेद का महत्त्व इस बात से अधिक है कि सामवेद को द्यु कहा गया है, जबकि ऋग्वेद को पृथिवी कहा है---"साम वा असौ द्युलोकः, ऋगयम् भूलोकः ।" (ताण्ड्य-ब्राह्मण--४.३.५)

सामवेद वेदों का सार है । सारे वेदों का रस या सार सामवेद ही है ---"सर्वेषामं वा एष वेदानां रसो यत् साम।" (शतपथ---१२.८.३.२३) (गोपथ-ब्राह्मण--२.५.७)

सामवेद के लिए गीतियुक्त होना अनिवार्य है---"गीतिषु सामाख्या।" (पूर्वमीमांसा--२.१.३६) ऋग्वेद और सामवेद का अभिन्न सम्बन्ध हैं । सामवेद के बिना यज्ञ नहीं होता---"नासामा यज्ञो भवति।" (शतपथ--१.४.१.१)

जो पुरुष "साम" को जानता है, वही वेद के रहस्य को जान पाता है---"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम्।" (बृहद्देवता)

 

आचार्य सायण के अनुसार ऋग्वेद के गाए जाने वाले मन्त्रों को "साम" कहते हैं---"ऋच्यध्यूढं साम।" अर्थात् ऋचाओं पर ही साम आश्रित है । सामवेद उपासना का वेद है ।

 

१. सामवेद के प्रमुख ऋषि---आदित्य,

सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं---

"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि।" (शतपथ--१०.५.१.५)

 

२. सामवेद के गायक ऋत्विज्---उद्गाता,

३. अध्ययन परम्परा — ऋषि व्यास ने सामवेद का अध्ययन कराया---जैमिनि को ।

जैमिनि ने सामवेद की शिक्षा अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को दी ।

सुकर्मा के दो शिष्य थे---हिरण्यनाभ कौशल्य और पौष्यञ्जि ।

हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था । कृत ने सामवेद के २४ प्रकार के गान स्वरों का प्रवर्तन किया था ।

 

४. सामवेद की शाखाएँ ---

ऋषि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की १०००  हजार शाखाएँ थीं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य) ।

सम्प्रति इसकी तीन ही शाखाएँ समुपलब्ध है---

(क) कौथुम,

(ख) राणायणीय,

(ग) जैमिनीय,

 

कौथुम शाखा के अनुसार सामवेद के दो भाग हैं---(क) पूर्वार्चिक , (२.) उत्तरार्चिक ।

(क) पूर्वार्चिकः----

इसमें कुल चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय, (ख) ऐन्द्र, (ग) पावमान (घ) आरण्य-काण्ड ।

परिशिष्ट के रूप में १० मन्त्र महानाम्नी आर्चिक हैं ।

पूर्वार्चिक में ६ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र ६५० हैं ।

प्रपाठकों में अध्याय है, अध्यायों में खण्ड हैं , जिन्हें "दशति" कहा जाता है, खण्डों में मन्त्र हैं ।

इसके प्रपाठकों के विभिन्न नाम हैं । जिसमें जिस देवता की प्रधानता है, उसका वही नाम है । जैसे---

(क) प्रथम प्रपाठक का नाम--"आग्नेय-पर्व" हैं, क्योंकि इसमें अग्नि से सम्बद्ध मन्त्र हैं । इसके देवता अग्नि ही है । इसमें कुल ११४ मन्त्र हैं ।

(ख) द्वितीय से चतुर्थ प्रपाठक का नाम---"ऐन्द्र-पर्व" है, क्योंकि इनमें इन्द्र की स्तुतियाँ की गईं हैं । इसके देवता इन्द्र ही है । इसमें ३५२ मन्त्र हैं ।

(ग) पञ्चम प्रपाठक का नाम ----"पवमान-पर्व" है, क्योंकि इसमें सोम की स्तुति की गई है । इसके देवता सोम ही है । इसमें कुल ११९ मन्त्र हैं ।

(घ) षष्ठ प्रपाठक का नाम---"अरण्यपर्व" है, क्योंकि इसमें अरण्यगान के ही मन्त्र है । इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम हैं । इसमें कुल ५५ मन्त्र हैं ।

(ङ) महानाम्नी आर्चिक---यह परिशिष्ट हैं । इसके देवता इन्द्र हैं । इसमें कुल १० मन्त्र हैं ।

इस प्रकार कुल मिलाकर पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र हुए ।

इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम से पञ्चम प्रपाठक तक के मन्त्रों का गान गाँवों में हो सकता है । इसलिए इन्हें "ग्रामगान" कहते हैं ।

 

सामगान के चार प्रकार होते हैं —

(क) ग्रामगेय गान--इसे "प्रकृतिगान" और "वेयगान" भी कहते हैं । यह ग्राम या सार्वजनिक स्थानों पर गाया जाता था ।

(ख) आरण्यगान या आरण्यक गेयगान---यह वनों या पवित्र स्थानों पर गाया जाता था । इसे "रहस्यगान" भी कहते हैं । 

(ग) उहगान---"ऊह" का अर्थ है---विचारपूर्वक विन्यास । यह सोमयाग या विशेष धार्मिक अवसरों पर गाया जाता था । 

(घ) उह्यगान या रहस्यगान --- रहस्यात्मक होने के कारण यह सार्वजनिक स्थानों पर नहीं गाया जाता था ।

 

(ख) उत्तरार्चिक----

इसमें कुल २१ अध्याय और ९ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र १२२५ हैं । इसमें कुल ४०० सूक्त हैं । 

पूर्वार्चिक में ऋचाओं का छन्द देवताओं के अनुसार है, जबकि उत्तरार्चिक में यज्ञों के अनुसार है ।

पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र है, जबकि  उत्तार्चिक में १२२५ मन्त्र हैं । दोनों मिलाकर १८७५ हुए ।

पूर्वार्चिक के २६७ मन्त्रों की आवृत्ति उत्तरार्चिक में हुई है । १५०४ मन्त्र ऋग्वेद से आगत है ।

 

साममवेदस्थ सामगान मन्त्रों के ५ भाग है —

 

(क) प्रस्ताव---इसका गान "प्रस्तोता" नामक ऋत्विक् करता है । यह "हूँ ओग्नाइ" से प्रारम्भ होता है ।

(ख) उद्गीथ---इसे साम का प्रधान ऋत्विक् उद्गाता गाता है । यह "ओम्" से प्रारम्भ होता है ।

(ग) प्रतिहार----इसका गान "प्रतिहर्ता" नामक ऋत्विक् करता है । यह दो मन्त्रों को जोडने वाली कडी है । अन्त में "ओम्"  बोला जाता है ।

(घ) उपद्रव----इसका गान उद्गाता ही करता है ।

(ङ) निधन----इसका गान तीनों ऋत्विक करते हैं---प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता ।

 

६. सामवेद के कुल मन्त्र----१८७५ हैं ।

ऋग्वेद से आगत मन्त्र हैं--१७७१ 

सामवेद के अपने मन्त्र हैं--१०४  = १८७५

ऋग्वेद से संकलित १७७१ मन्त्रों में से भी २६७ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।

सामवेद के अपने १०४ मन्त्रों में से भी ५ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।

इस प्रकार पुनरुक्त मन्त्रों की संख्या २७२ है ।

 

सारांशतः —

सामवेद में ऋग्वेदीय मन्त्र १५०४ + पुनरुक्त २६७ कुल हुए= १७७१

सामवेद के अपने मन्त्र--९९ + पुनरुक्त ५, इस प्रकार कुल हुए= १०४ 

दोनों को मिलाकर कुल मन्त्र हुए--- १७७१ + १०४  = १८७५

सामवेद में ऋग्वेद से लिए गए अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद के ८ वें और ९ वें मण्डल के हैं । 

८ वें मण्डल से ४५० मन्त्र लिए गए हैं,

९ वें मण्डल से ६४५ मन्त्र लिए गए हैं ।

१ मण्डल से २३७ मन्त्र लिए गए हैं ।

१० वें मण्डल से ११० मन्त्र लिए गए हैं ।

सामवेद में कुल अक्षर ४००० * ३६ = १,४४,००० (एक लाख, चौवालीस हजार) हैं ।

सामवेद के ४५० मन्त्रों का गान नहीं हो सकता, अर्थात् ये गेय नहीं है ।

 

कौथुम शाखा में कुल मन्त्र १८७५ हैं, जबकि जैमिनीय शाखा में १६८७ मन्त्र ही है ।

इस प्रकार जैमिनीय-शाखा में १८८ मन्त्र कम है ।

जैमिनीय शाखा में गानों के ३६८१ प्रकार हैं, जबकि कौथुमीय में केवल २७२२ ही हैं, अर्थात् जैमिनीय-शाखा में ९५९ गान-प्रकार अधिक हैं ।

 

जैमिनीय-शाखा की संहिता, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र सभी उपलब्ध हैं, किन्तु कौथुमीय के नहीं ।

 

ब्राह्मण —

 

पञ्चविंश (ताण्ड्य) महाब्राह्मण , षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, वंश, जैमिनीय, तलवकार ।

 

आरण्यक — कोई नहीं ।

 

उपनिषद् — छान्दोग्य, केनोपनिषद् ।

 

श्रौतसूत्र — खादिर, लाट्यायन, द्राह्यायण ।

 

गृह्यसूत्र — खादिर, गोभिल, गौतम ।

 

धर्मसूत्र — गौतम ।

 

शुल्वसूत्र कोई नहीं ।