Samveda/152
अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रह। अह सूर्य इवाजनि॥१५२
Veda : Samveda | Mantra No : 152
In English:
Seer : vatsaH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : ahamiddhi pituShpari medhaamRRitasya jagraha . aha.m suurya ivaajani.152
Component Words : aham.it.hi. pituH pari. medhaam. RRitasya. jagraha. aham. suuryaH . iva. ajani..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : वत्सः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अगले मन्त्र में उपासक अपनी उपलब्धि का वर्णन कर रहा है।
पदपाठ : अहम्।इत्।हि। पितुः परि। मेधाम्। ऋतस्य। जग्रह। अहम्। सूर्यः । इव। अजनि।८।
पदार्थ : (अहम्) मैंने (इत् हि) सचमुच (पितुः परि) पिता इन्द्र परमेश्वर से (ऋतस्य मेधाम्) सत्याचरण की मेधा को अथवा ऋतम्भरा प्रज्ञा को (जग्रह) ग्रहण कर लिया है। उससे प्रकाशमान हुआ (अहम्) अध्यात्मपथ का पथिक मैं (सूर्यः इव) सूर्य के समान (अजनि) हो गया हूँ ॥८॥इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥८॥
भावार्थ : पिता परमेश्वर की उपासना से मनुष्य सत्यज्ञान, सत्य आचरण और ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्राप्त करके सूर्य के समान प्रकाशमान होकर मुक्ति उपलब्ध कर सकता है ॥८॥
In Sanskrit:
ऋषि : वत्सः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथोपासकः स्वोपलब्धिं वर्णयति।
पदपाठ : अहम्।इत्।हि। पितुः परि। मेधाम्। ऋतस्य। जग्रह। अहम्। सूर्यः । इव। अजनि।८।
पदार्थ : (अहम्) परमेश्वरोपासकः (इत् हि) किल (पितुः२ परि) पितुं इन्द्रात् परमेश्वरात्। परि इति पञ्चम्यर्थानुवादी, ‘पञ्चम्याः परावध्यर्थे।’ अ० ८।३।५१ इति विसर्जनीयस्य सत्वम्, ततो मूर्धन्यादेशः। (ऋतस्य मेधाम्) सत्याचरणस्य प्रज्ञाम्, ऋतम्भरां प्रज्ञां वा। 'निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः। ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा।' योग० १।४७, ४८ इति योगदर्शने व्याख्यातम्। (जग्रह) गृहीतवानस्मि। ऋतम्भराप्रज्ञाप्रकाशेन प्रकाशमानश्च (अहम्) अध्यात्मपथिकः (सूर्यः इव) आदित्यः इव (अजनि) जातोऽस्मि ॥८॥अत्रोपमालङ्कारः ॥८॥
भावार्थ : पितुः परमेश्वरस्योपासनया मनुष्यः सत्यज्ञानं सत्याचरणम् ऋतम्भरां प्रज्ञां च प्राप्य सूर्य इव प्रकाशमानः सन् कैवल्यमधिगन्तुमर्हति ॥८॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।६।१०, अथ० २०।११५।१, उभयत्र 'जग्रह' इत्यस्य स्थाने 'जग्रभ' इति पाठः। साम० १५००।२. अहम् (वत्स ऋषिः) पितुः कण्वस्य सकाशाद्—इति वि०। भरतस्वामिनोऽपि तदेवाभिप्रेतम्। पितुः पालकस्य ऋतस्य सत्यस्यापि तस्येन्द्रस्य मेधाम् अनुग्रहात्मिकां बुद्धिम्—इति सा०।