Donation Appeal
Choose Mantra
Samveda/1640

व्यऽ.न्तरिक्षमतिरन्मदे सोमस्य रोचना। इन्द्रो यदभिनद्वलम्॥१६४०

Veda : Samveda | Mantra No : 1640

In English:

Seer : goShuuktyashvasuuktinau kaaNvaayanau | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : vyaa3ntarikShamatiranmade somasya rochanaa . indro yadabhinadvalam.1640

Component Words :
vi . antarikSham . atirat . made . somasya . rochanaa . indraH . yat . abhinam . balam.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में फिर जीवात्मा का विषय है।

पदपाठ : वि । अन्तरिक्षम् । अतिरत् । मदे । सोमस्य । रोचना । इन्द्रः । यत् । अभिनम् । बलम्॥

पदार्थ : (इन्द्रः) बलवान् जीवात्मा (सोमस्य) भक्तिरस के (मदे) उत्साह में(यत्) जब (वलम्) आवरण डालनेवाले अर्थात् लक्ष्य-प्राप्ति के बाधक अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष आदि, काम-क्रोध आदि और व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य आदि विघ्न-समूह को(अभिनत्) छिन्न-भिन्न कर देता है, तब (अन्तरिक्षम्) मध्यस्थ मनोमय और विज्ञानमय आकाश को तथा (रोचना) उसमें प्रकाशमन सद्भाव-रूप नक्षत्रों को (वि-अतिरत्) फैला देता है ॥२॥

भावार्थ : परमात्मा के पास से प्राप्त बल से ही मनुष्य का आत्मा पग-पग पर आये हुए विघ्नों का विध्वंस करके लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ होता है ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनरपि जीवात्मविषयमाह।

पदपाठ : वि । अन्तरिक्षम् । अतिरत् । मदे । सोमस्य । रोचना । इन्द्रः । यत् । अभिनम् । बलम्॥

पदार्थ : (इन्द्रः) बलवान् जीवात्मा (सोमस्य) भक्तिरसस्य (मदे) उत्साहे (यत्) यदा (वलम्) आवरकं, लक्ष्यप्राप्तौ प्रतिबन्धकम् अविद्यास्मितारागद्वेषादिकं, कामक्रोधादिकं, व्याधिस्त्यानसंशय- प्रमादालस्यादिकं च विघ्नसमूहम् (अभिनत्) भिनत्ति तदा (अन्तरिक्षम्) मध्यस्थं मनोमयं विज्ञानमयं च आकाशम्, तत्र च(रोचना) रोचनानि तेजोमयानि सद्भावरूपाणि नक्षत्राणि(वि-अतिरत्) विस्तारयति ॥२॥

भावार्थ : परमात्मनः सकाशात् प्राप्तेन बलेनैव मनुष्यस्यात्मा पदे पदे समागतान् विघ्नान् विध्वस्य लक्ष्यं प्राप्तुं क्षमते ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।१४।७, अथ० २०।२८।१, ३९।२।