स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥३८॥
Padas Name : Samaadhi Paada / Trance | Sutra No : 38
(vaa) Or mind concentrating upon the (svapna-nidraa-j~naanaalambanam) knowledge of dream or knowledge of sleep also reaches the state of steadiness.
As in the state of dreams, the mind sees the earlier mental impressions, and in the state of deep sleep, the mind rest in the state of pleasure and knowledge; so while in the awakening state when the devotee = Yogi concentrates on such knowledge of dreams or sleep, his mind reaches the state of steadiness. (Hugli Debate)
svapnaj~naanaalambana.m nidraaj~naanaalambana.m vaa tadaakaara.m yoginashchitta.m sthitipada.m labhata iti.
(svapna-j~naanaalambanam vaa) By concentrating upon the knowledge of dream or (nidra-j~naanaalambanam vaa) by concentrating upon the knowledge of sleep and (tadaakaaram) taking the shape of such knowledge (yoginaH chittam) the mind of yogi (labhate) attains the (sthitipadam iti) state of steadiness.
Seer Patanjali is advising for achievement of steadiness of mind on the basis of knowledge of the states of "dream" and "sleep".
Before understanding the secret of such advice, we must go through the context of functioning of Soul, as given by Seer Yajvalkya to King Janak in Brihadaarankya upaniShada. Position of Soul in the state of dreams is explained as —
sa yatra prasvapityasyalokasya sarvaavato svena ..... jyotiShaa prasvapitya-traayam puruShaH svayam jyotiH-bhavati. (Brihadaaranyaka upaniShada 4.3.9)
i.e. when the Soul starts functioning in the state of dream, then with all the residual potencies, taking some part of knowledge of awakening, erasing the same by himself, again creating the same by himself, performs in that state with his power, and with his knowledge. In this state Soul is in the form of his knowledge. Further it is said —
svapnena shaariiram-abhiprahatyaasuptaH suptaanabhichaakashiiti. shukramaadaaya punareti sthaanam hiraNmayaH purushaH ekaha.nsaH. (Brihadaa-ranyaka upaniShada 4.3.11)
i.e. in the state of dreams, the external organs and physical body is made inactive, Soul does not sleep there buts sees all the objects with the mental modification. Again taking the power of external organs, the conscious Soul alone, comes back to the state of awakening.
As per the above testimony, the Soul is not affected by the organs, in the state of dreams, and functions at his own. In the state of dreams, the external modifications of the organs cease and mind sees the residual potencies of experiences of awakening. By concentrating on such knowledge of dreams, the steadiness of mind is performed. But this mean (= concentrating on the knowledge of dreams) of steadiness is subtle and wants hard work.
The beginner devotee can achieve the steadiness of mind by concentrating on the illuminating experiences of the dreams. As a devotee is performing the yogic practices by study of vedic scriptures, repetition of 'AUM', accessories of yoga, and implements advises of desireless-ness in his life. By the continuous practice of such means, the residual potencies of similar acts accumulate in the mind. Then in the state of dreams also, such devotee may see himself performing such acts in the dream. If he can maintain such illuminating experiences at the time of awakening also, and concentrate on the knowledge of such dreams, then the similar illuminating modifications do take place after the experience of dreams, and this will result in one-pointedness of the mind.
Similarly, on having the sleep with the dominance of Illuminating Quality, one experience - 'I slept comfortably, because my mind is happy and rendering my intellect bright' (Ref aphorism 1.10). And "yatra supto na ka~nchana kaamam kaamayate na ka~nchana svapnam pashyati tat suShuptam" (Maandukya-upaniShada 5) i.e. in the state of deep sleep Soul does not wish any external object / subject, nor sees any dreams. In this state the Soul is devoid of any mental activity, so exists in his own form. Here the knowledge of sleep is meant by this state only. By concentrating on this knowledge in the state of awakening, the mind becomes steady. During the time of such performance, all other mental modifications cease and only one modification = knowledge of "state of sleep" manifests, and this results in one-pointedness of the mind.
It is to be understood that in the state of awakening one is to make the knowledge of "dream" and "sleep" as base for the mind to concentrate, he should not try to reach in the state of "dream" and / or "sleep" again. Seer Patanjali had considered this (= sleep) modification as an obstacle for trance and advised for its restraint also, but considered the illuminating knowledge of this state as useful to achieve steadiness of mind.
While writing commentary on this aphorism, Vaachaspati Mishra had given the example and advise for concentration of idol of god, which is against the scripture. The concept of idol of god is against the principle of Vedic scriptures, so this conception is not as per the advice of seer Patanjali and seer Vyaasa. This concept is abrogated by us in our commentary to aphorism 1.17 in the context of Argumentative Cognitive Trance.
In Hindi:
संस्कृत में सूत्र की भूमिका :(वा) अथवा (स्वप्ननिद्राज्ञान आलम्बनम्) स्वप्नज्ञान और निद्राज्ञान को आलम्बन = आश्रय करने वाला चित्त एकाग्रता को प्राप्त करता है॥
“(वा॰) अथवा ... जैसे स्वप्नावस्था में चित्त ज्ञानस्वरूप होके पूर्वानुभूत संस्कारों को यथावत् देखता है तथा निद्रा अर्थात् सुषुप्ति में आनन्दस्वरूप ज्ञानवान् चित्त होता है, ऐसा ही जागृतावस्था में जब योगी ध्यान करता है। इस प्रकार आलम्बन से तब योगी का चित्त स्थिर हो जाता है।” (हुगली शास्त्रार्थ प्रतिमापूजन विचार से)
स्वप्नज्ञानालम्बनं निद्राज्ञानालम्बनं वा तदाकारं योगिनश्चित्तं स्थितिपदं लभत इति॥
(स्वप्नज्ञानालम्बनम् वा) स्वप्नास्था के ज्ञान का आलम्बन = आश्रय करने वाला अथवा (निद्राज्ञानालम्बनम्) निद्रा = सुषुप्ति अवस्था के ज्ञान का आलम्बन = आश्रय करने वाला (तदाकारम्) तदाकारित = उनके ज्ञान के आकार को प्राप्त हुआ (योगिनः) योगी का (चित्तम्) चित्त भी (स्थितिपदम्) स्थितिपद = सि्थरता = एकाग्रता को (लभते इति) प्राप्त करता है॥
महर्षि पतञ्जलि इस सूत्र में स्वप्नावस्था और सुषुप्ति अवस्था के ज्ञान के आश्रय के आधार पर चित्त की एकाग्रता प्राप्ति का निर्देश कर रहे हैं।
स्वप्नावस्था के ज्ञान के आलम्बन से चित्त की स्थिरता के रहस्य को समझने हेतु, बृहदारण्यकोपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा जनक को आत्मविषयक उपदेश के निम्न प्रसंग को देखें। जीवात्मा के स्वप्नस्थान का वर्णन करते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं —
स यत्र प्रस्वपित्यस्यलोकस्य सर्वावतो स्वेन ...... ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति॥ बृहदा॰ ४.३.९॥
अर्थात् जीवात्मा जिस काल में स्वप्नक्रीड़ा करना आरम्भ करता है, उस समय सब वासनाओं से युक्त इसी जाग्रत लोक से कुछ अंश लेकर, अपने से ही उसे मिटाकर, पुनः अपने से ही उसे निर्माणकर, निज तेज से, निज ज्योति से, विशेष-विशेष स्वप्न की क्रीड़ा करना आरम्भ करता है। इस अवस्था में वह पुरुष स्वयं ज्योति होता है॥ आगे कहा है —
स्वप्नेन शारीरमभिप्रहत्यासुप्तः सुप्तानभिचाकशीति। शुक्रमादाय पुनरेति स्थानं हिरण्मयः पुरुष एकहंसः॥ बृहदा॰ ४.३.११॥
अर्थात् स्वप्न के द्वारा स्थूल शरीर को बाह्य इन्द्रियों सहित निश्चेष्ट बना, अपने में न सोता हुआ, अन्तःकरण की वृत्ति से सब पदार्थों को देखता है। पुनः इन इन्द्रियों की कान्ति = तेज को लेकर ज्योतिस्वरूप जीवात्मा एकहंस = अकेला ही फिर जाग्रतावस्था को आता है।
उपर्यक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि जीवात्मा स्वप्नावस्था में बाह्यइन्द्रियों के प्रभाव से मुक्त, अपनी ज्योति = अपने ज्ञान से युक्त रहता है। स्वप्नावस्था में इन्द्रियों की बाह्य वृत्तियों के समाप्त हो जाने पर मन द्वारा पूर्वकाल में अनुभूत संस्कारों को देखा जाता है। जीवात्मा के ज्ञान की इसी अवस्था का आलम्बन करने से भी चित्त में एकाग्रता का सम्पादन किया जाता है। परन्तु स्वप्नावस्था विषयक ज्ञान का यह उपाय सूक्ष्म एवं परिश्रमसाध्य है।
आरम्भिक साधक स्थूल उपाय के रूप में, स्वप्नकाल में हुई सात्त्विक अनुभूतियों के ज्ञान का आलम्बन करके भी चित्त स्थिरता को प्राप्त हो जाता है। जैसे कोई साधक वेदादि सत्यशास्त्रों का अध्ययन, प्रणव का जप, योगविद्या का अभ्यास, वैराग्योत्पादक उपदेशों को अपने दैनिक जीवन में अपनाता है। इस प्रकार के अनवरत अभ्यास से चित्त में ऐसे संस्कारों का बाहुल्य हो जाने से, साधक स्वप्नकाल में कभी-कभी ऐसे सात्त्विक संस्कारों को भी देखता है। इस प्रकार के सात्त्विक स्वप्नों की अनुभूति को वह अगर जाग्रत अवस्था में भी बनाए रखे, उस स्वप्नावस्था के ज्ञान का आश्रय करे तो चित्त में तुल्यज्ञान के बने रहने से चित्त में एकाग्रता की प्राप्ति हो जाती है। [1]
इसी प्रकार निद्रा = सुषुप्ति अवस्था में सात्त्विक निद्रा होने पर, जागने पर जो “मैं सुखपूर्वक सोया, मेरा मन प्रसन्न है और मेरी बुद्धि को निर्मल कर रहा है” [2] इस प्रकार का ज्ञान होता है। इस काल में जीवात्मा न किसी प्रकार के बाह्यविषय की चाहना करना और न ही कोई स्वप्न ही देखता है। [3] इस काल में जीवात्मा चित्त की चेष्टा से भी सर्वथा रहित हुआ अपने में स्थित होता है। यहाँ निद्राज्ञान का अभिप्राय इसी स्थिति से है। ऐसे ज्ञान का आलम्बन = आश्रय जाग्रत अवस्था में भी करने से योगी का चित्त स्थिरता = एकाग्रता को प्राप्त हो जाता है। ऐसे काल में सभी प्रकार की अन्य वृत्तियों का क्षय हो जाने से और एक मात्र सात्त्विक सुषुप्ति अवस्था की उपर्युक्त प्रकार की अनुभूति के बने रहने से चित्त एकाग्रता को प्राप्त करता है।
यहाँ यह समझना चाहिए कि जाग्रत अवस्था में केवलमात्र स्वप्नज्ञान अथवा निद्राज्ञान का आलम्बन = आश्रय करना होता है, न कि साधक को स्वप्न अथवा निद्रा की पुनः प्राप्ति का प्रयत्न करना होता है। महर्षि पतञ्जलि ने निद्रा वृत्ति को समाधि प्राप्ति में बाधक मानते हुए इसके निरोध का विधान किया है, परन्तु इस काल के सात्त्विकज्ञान के आलम्बन को एकाग्रता प्राप्ति में उपयोगी माना है।
इस सूत्र की व्याख्या में वाचस्पति मिश्र ने “तत्त्ववैशारदी” में स्वप्नकाल में ईश्वर की प्रतिमा आदि आराधना का उदाहरण, निर्देश किया है, जोकि शास्त्रविरुद्ध है। ईश्वर की प्रतिमा का निषेध वेदादिशास्त्रों में होने से ऐसे प्रकरण महर्षि पतञ्जलि और महर्षि व्यास की भावना से विरुद्ध है। ईश्वर की प्रतिमा के निषेध को हमने योगसूत्र १.१७ की “वैदिक योग मीमांसा” में भी कहा है, जहाँ पर वितर्कानुगत समाधि में चतुर्भुजादि स्वरूप का उल्लेख पौराणिक भाष्यकारों ने किया है।
[1] ततः पुनः शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चितस्यैकाग्रतापरिणामः॥ योग० ३.१२॥
[2] सुखमहमस्वाप्सम्। प्रसन्नं मे मनः प्रज्ञां मे विशारदी करोति॥ व्यासभाष्य १.१०॥
[3] यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम्॥ माण्डक्यो॰ ५॥