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Samaadhi Paada / Trance / 39
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Samaadhi Paada / Trance / 39

यथाभिमतध्यानाद्वा ॥३९॥

Padas Name : Samaadhi Paada / Trance | Sutra No : 39

In English:
Preface to Sutra in English :

Meaning in English :

Sutra in English : yathaabhimatadhyaanaadvaa .39.

Meaning in English :

(vaa) Or one can attain the state of steadiness of mind by (yathaa-abhimata dhyaanaat) concentrating on any one object or subject = knowledge as described in previous aphorisms (1.35-1.38) as means of steadiness of mind.



Swami Dyanand Saraswati Gloss :

Or, the various means of steadiness as described from "the cognizance of subtle smell by concentrating upon the fore-part of the nose" (yoga 1.35) to "concentrating upon the knowledge of sleep" (yoga 1.38), the yogi should concentrate on any one of the above means, wherever he has choice = predilection, he should concentrate there only. (Hugli Debate)



Vyaasa Commentary in English :

yadevaabhimata.m tadeva dhyaayet. tatra labdhasthitikamanyatraapi sthitipada.m labhata iti.



Meaning In English :

(yadeva) Whichever the mean of steadiness of mind (abhimatam) is liked by the Yogi, (tadeva dhyaayet) there only he should concentrate. (tatra labdha-sthitikam) On becoming steady in that object = subject he (labhate) attains (sthitipadam) the steadiness (anyatra-api iti) in other objects / subject = knowledge also. 



Vedic Commentary in English :

Seer Patanjali had advised various means for achieving steadiness of mind from 'viShayavatii vaa pravrittiH-utpannaa manasaH sthitinibandhanii' (aphorism 1.35) to 'svapnanidraa-GYaanaalambanam vaa' (aphorism 1.38). All these means are important to purify the mind and achieve its steadiness. But it should not be confused that every devotee is to adopt all the above means to achieve the steadiness of mind, so seer Patanjali had advised in this aphorism that one can attain the steadiness of mind by any mean as advised above as per his choice  and he should concentrate there only.

            Seer Vyaasa said that devotee do achieve the steadiness of mind by concentrating on any mean of his liking = choice. And on becoming steady in that subject / object, he can attain steadiness in other subjects / objects also. In such case he is not required to put extra labour for concentrating on other means.

            Swami Dayanand very clearly said in this regard that - from "the cognizance of subtle smell by concentrating upon the fore-part of the nose" by which yogi cognizes the super-physical = subtle smell which is called as higher olfactory sense-activity; to "concentrating upon the knowledge of sleep" i.e. concentrating on the knowledge of sleep - the yogi should concentrate on any one of the above means, wherever he has choice = predilection, he should concentrate there only.

            Seer Patanjali had advised the various means, as per scriptures, for steadiness of mind in these aphorisms; and by adopting any of these mean, steadiness of mind is achieved. Further seer Patanjali had used the word 'or' with all these aphorisms which means one can adopt any of these means.

            Bhoja while writing his commentary on this aphorism said for concentrating on any external object, and on navel plexus etc. (= various Chakras in the body) as internal objects. These is against the principles of seer Patanjali and seer Vyaasa, hence not acceptable. Seer Patanjali and seer Vyaasa had not prescribed for performing Sanyama in any chakra other than the 'navel plaxus'. Performance of Sanyama in various chakras was first prescribed in Hathayoga only. The real purpose of chakras and their harmony is not related to Yoga and attainments. So attaining steadiness of mind by performing concentration in chakras is not desired here. The various commentators after the Bhoja have given the explanation as per their wish to the term 'yatha-abhimat' = 'as liked = desired'. They have even prescribed for concentration of idol of some god of one's liking i.e. Shiva, Durga, Vishnu, Ganesh, Sun etc. which is totally against the principles of Yoga as explained by seer Patanjali and seer Vyaasa and also against the principles of vedic scriptures. Such type of concentration cannot result in one-pointedness = steadiness of mind. Seer Patanjali had not advised for concentration on gross objects in any of the above means, nor had advised these objects for meditation in this scripture. So steadiness of mind is not possible on the basis of concentration on such objects. Even some of the modern commentators = teachers of Yoga are prescribing for some means like leaving the mind uncontrolled, laughing, performing as per mental modification etc., but these means are not capable to manifest steadiness of mind.

            In the same way some of the commentators have advised to adopt the various means as advised in other scriptures. But these commentators had not given an example of any such mean, which is not prescribed by seer Patanjali. Seer Patanjali had advised all possible means for steadiness and purity of mind which are helpful and acceptable to achieve the fruits of Yoga.



Comment in English :


In Hindi:

संस्कृत में सूत्र की भूमिका :

हिंदी में अर्थ :

हिंदी में अर्थ :

(वा) अथवा (यथा-अभिमत-ध्यानात्) उपर्युक्त कहे गये उपायों = परिक्रमों में से जो उपाय = परिक्रम जिसको अभिमत हो = अधिक अनुकूल हो, उसी के ध्यान से चित्त स्थिरता को प्राप्त होता है॥



महर्षि दयानन्द कृत अर्थ :

(वा) अथवा “ ‘नासिकाग्रे धारयतो वा गन्धसंवित्’ इससे लेके ‘निद्राज्ञानावलम्बनं वा’ यहाँ तक शरीर में जितने चित्त के स्थिर करने के वास्ते स्थान लिखे हैं, इन्हीं में से किसी स्थान में योगी चित्त को धारण करे। जिस स्थान में अपनी अभिमति (हो), उसमें चित्त को ठहराये।” (हुगली शास्त्रार्थ प्रतिमापूजन विचार से)



व्यास भाष्य :

यदेवाभिमतं तदेव ध्यायेत्। तत्र लब्धस्थितिकमन्यत्रापि स्थितिपदं लभत इति॥



हिंदी में अर्थ :

चित्त की एकाग्रता = स्थिति सम्पादन हेतु निर्दिष्ट उपरोक्त उपायों = परिक्रमों में से (यदेव) जो भी उपाय = परिक्रम (अभिमतम्) साधक को अभीष्ट हो (तदेव) उसी उपाय = परिक्रम का (ध्यायेत्) आलम्बन = आश्रय करके ध्यान करना चाहिए। (तत्र) उस उपाय = परिक्रम से (लब्धस्थितिकम्) स्थिरता = एकाग्रता को प्राप्त हुआ चित्त (अन्यत्रापि) अन्य विषयों में भी (स्थितिपदम्) स्थिरता = एकाग्रता को (लभते इति) प्राप्त हो जाता है॥



वैदिक योग मीमांसा :

महर्षि पतञ्जलि ने “विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी” (योग० १.३५) से “स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा” (योग० १.३८) तक चित्त की एकाग्रता = स्थिति सम्पादन हेतु विभिन्न उपायों = साधनों = परिकर्मों का निर्देश किया है। यह सभी उपाय = परिकर्म साधक को चित्त की स्थिति सम्पादन हेतु उपयोगी है, परन्तु प्रत्येक साधक को सभी उपायों = परिकर्मों को अपनाते हुए चित्त की स्थिरता = एकाग्रता का सम्पादन करना चाहिए, ऐसा भ्रम न हो इस हेतु महर्षि पतञ्जलि ने इस सूत्र के द्वारा यह निर्देश किया है कि जिस साधक को उपरोक्त उपायों = परिकर्मों में से, जो भी उपाय = परिकर्म अभीष्ट हो = अभिमत हो, उसी उपाय = परिकर्म का आलम्बन कर, चित्त की स्थिरता को प्राप्त करे।

          महर्षि व्यास कहते हैं कि साधक उपरोक्त उपायों = परिकर्मों में से किसी भी एक उपाय से चित्त की स्थिरता प्राप्त करने पर, उसी प्रकार अन्य विषयों में भी स्थिरता = एकाग्रता को प्राप्त कर लेता है। ऐसे में साधक को अन्य उपायों का आलम्बन करने हेतु, सर्वप्रथम प्रयुक्त उपाय = परिकर्म के समान अत्यधिक श्रम नहीं करना होता।

          महर्षि दयानन्द सरस्वती भी इस सूत्र पर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि “नासिकाग्रे धारयतो या गंधसंवित्” अर्थात् नासिका के अग्र भाग पर धारणा करने से योगी को दिव्यगंध का साक्षात्कार होता है, जिसे गंधप्रवृत्ति कहते हैं;  से लेकर “निद्राज्ञानालम्बनं वा” अर्थात् निद्रा के ज्ञान का आलम्बन करने तक जो चित्त की स्थिरता = एकाग्रता सम्पादन के उपाय = परिकर्म बताये गये हैं, उनमें से किसी भी एक स्थान पर चित्त को ठहराए।

          महर्षि पतञ्जलि ने योग = वृत्तिनिरोध में सहायक शास्त्रानुकूल सभी उपायों = परिकर्मों का वर्णन इन सूत्रों के द्वारा किया है;  और इन्हीं उपायों = परिकर्मों में से, किसी एक उपाय = परिकर्म को अपनाने से, चित्त स्थिरता को प्राप्त होता है। महर्षि ने सूत्र १.३५ के पश्चात् सभी सूत्रों में “वा” का निर्देश विकल्प रूप में किया है, अर्थात् किसी भी उपरोक्त उपाय = परिकर्म से चित्त की स्थिरता = एकाग्रता का सम्पादन करे।

          भोज द्वारा इस सूत्र के भाष्य में जो चित्त की एकाग्रता सम्पादन हेतु बाह्य पदार्थों में भावना का, और आन्तरिक विषयों = वस्तु के रूप में चक्रादि का निर्देश किया है, वह सभी महर्षि पतञ्जलि और महर्षि व्यास की मान्यताओं से विपरीत है, अतः सिद्धान्तविरुद्ध है। महर्षि पतञ्जलि और महर्षि व्यास ने नाभिचक्र के अतिरिक्त किसी अन्य चक्र में संयम का विधान योगशास्त्र में नहीं किया। शरीर के विभिन्न चक्रों में संयम का विधान सर्वप्रथम हठयोग के ग्रंथों में हुआ है। अतः चक्रों में ध्यान से एकाग्रता प्राप्ति यहाँ अभीष्ट नहीं है। वर्तमान काल में प्रचलित सात चक्रों (मूलाधार से सहस्रार चक्र पर्यन्त) में प्रचलित संयम, एवं इस प्रकार की भावना, चित्त की स्थिरता हेतु महर्षि पतञ्जलि को अभीष्ट नहीं है। इस सूत्र पर उत्तरकाल के व्याख्याकारों ने भी मनमर्जीपूर्ण व्याख्यान किए है। “यथा-अभिमत” से विभिन्न भाष्यकारों ने अपनी इच्छा के अनुकूल इष्ट देवता आदि, मूर्त्ति आदि के ध्यान को भी कहा है। पौराणिक भाष्यकारों ने तो शिव, दुर्गा, गणेश, विष्णु आदि तथा सूर्य आदि की काल्पनिक मूर्त्तियों, इनके काल्पनिक स्वरूपों में ध्यान को भी इस सूत्र की व्याख्या में कहा है, जो कि सर्वथा योगशास्त्र तथा वेदादि सत्यशास्त्रों की मान्यताओं के विरुद्ध है। इस प्रकार से किया गया ध्यान साधक के लिए एकाग्रता का सम्पादन नहीं कर सकता। महर्षि पतञ्जलि ने उपरोक्त उपायों = परिकर्मों में कही भी स्थूल भूतों अथवा उनके विकारों में धारणा का विधान नहीं किया है। अतः ऐसे आलम्बनों से चित्त की स्थिरता = एकाग्रता प्राप्ति सम्भव ही नहीं है। इसी प्रकार आधुनिक काल में भी योग से अनभिज्ञ लोगों द्वारा प्रचलित अन्य उपायों, यथा, मन को नियन्त्रण हीन छोड़ देना, हँसना, मन के अनुकूल आचरण करना आदि उपायों को भी स्थिति सम्पादन हेतु उपयोगी नहीं समझना चाहिए।

          इसी प्रकार से कुछ भाष्यकारों ने “यथाभिमत” से अन्यशास्त्रों में मनोनियन्त्रण हेतु बताए गए उपायों में से अभीष्ट = अनुकूल उपाय को अपनाने का निर्देश किया है। परन्तु इन भाष्यकारों ने महर्षि पतञ्जलि द्वारा बताए गए उपायों से भिन्न, इन अन्यशास्त्रों में बताए उपायों में से, एक का भी उद्धहरण अपने भाष्य में नहीं दिया है। महर्षि पतञ्जलि ने वेदादि शास्त्रों में बताए गए उपायों का निर्देश ही इन सूत्रों के द्वारा किया है, और इस शास्त्र में योगी को कैवल्य प्राप्ति हेतु सभी आवश्यक साधनों का निर्देश कर दिया है, अतः ये ही स्वीकरणीय हैं।



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