श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्॥४९॥
Padas Name : Samaadhi Paada / Trance | Sutra No : 49
Proficient Mental cognition, (visheShaarthatvaat) by showing the real form of object, (shruta-anumaana-praj~naabhyaam) as compared to verbal cognition and inferential cognition, (anyaviShayaa) has different subject.
shrutamaagamavij~naana.m tatsaamaanyaviShayam. na hyaagamena shakyo visheSho.abhidhaatum. kasmaata na hi visheSheNa kRRitasa.mketaH shabda iti. tathaa.anumaana.m saamaanyaviShayameva. yatra praaptistatra gatiryatraapraaptistatra na gatirityuktam. anumaanena cha saamaanyenopasa.mhaaraH. tasmaatChrutaanumaanaviShayo na visheShaH kashchidastiiti.
na chaasya suukShmavyavahitaviprakRRiShTasya vastuno lokapratyakSheNa grahaNamasti. na chaasya visheShasyaa- praamaaNikasyaabhaavo.astiiti samaadhipraj~naanirgraahya eva sa visheSho bhavati bhuutasuukShmagato vaa puruShagato vaa. tasmaachChrutaanumaanapraj~naabhyaamanyaviShayaa saa praj~naa visheShaarthatvaaditi.
(shrutam) Verbal cognition is (aagamavij~naanam) knowledge received from others, vedas and / or other literature, and (tat) that (saamaanya-viShayam) gives the general properties of the object / subject. (hi) Certainly (na shakyaH) it is not possible (abhidhaatum) to describe (visheShaH) the particular properties of the object (aagamena) by words. (kasmaat) Why it is not possible? (hi) Since (na) there is no (krita-sa~NketaH) conventional denotation (visheSheNa) of the particular properties of objects (shabda iti) in words.
(tathaa) Similarly (anumaanam) the inferential cognition (saamaanya-viShayam eva) also gives the general properties of the subject / object. (yatra praaptiH) Wherever there is approach (tatra gatiH) there is motion, and (yatra apraaptiH) wherever there is no approach (tatra na gatiH) there is no existence of motion, (iti uktam) this principle is explained in aphorism 1.7. (cha) Further (anumaanena) inferential cognition (upasa.nhaaraH) arrives at conclusions (saamaanyena) by the general properties of the object / subject. (tasmaat) Therefore (na asti) there are no (kashchit visheShaH) particular properties of object / subject, (shruta-anumaana-viShayaH iti) which become base for cognition in induction and verbal cognition.
(cha) And by (asya) this (loka-pratyakSheNa) ordinary perception, (grahaNam) cognition of (suukShma-vyavahita-viprakriShTasya vastunaH) subtle, distant and intercepted objects (na asti) is not possible. (cha) And (apraamaaNakasya) for want of perception (asya visheShasya) the particular properties of such objects, (abhaavaH na asti iti) their existence cannot be denied. As (nirgraahya) cognition of (bhuuta-suukShma-gato vaa puruSha-gato vaa) particular properties of subtle elements / objects and soul and / or GOD is possible by (samaadhi-praj~naa eva) trance consciousness only, so (sa) that cognition (bhavati) is (visheShaH) real cognition. (tasmaat) Hence (saa) this (praj~naa) proficient mental cognition (visheShaarthatvaat) by cognizing the particular properties of the objects, becoming base for cognition (anyavishayaa) is different from (shrutaanumaana-praj~naabhyaam iti) verbal and inferential cognition.
Essential cognition, which shows the real form of the object, generated on account of internal perception from the proficiency of Ultra-meditative Cognitive Trance, is entirely different from the verbal cognition and inferential cognition.
From the verbal cognition, the general properties of the object is known. Specific properties of the object could not be described by it, since words have no such capability which can give the particular properties of the object. Vedas and vedic literature comes under the category of testimony. The knowledge given in the Vedas is beyond any doubts or suspicion, but till it is not cognized through the process of 'shravaNa chatuShThaya' = Four-steps Realisation method, (as explained in aphorism 1.41), the hearer / reader gets the general properties of the objects / subjects, their particular / specific properties are not known. Let us take an example — when we say 'fire burns', the hearer of these words knows that burning takes place by fire. But by hearing these words no one gets burnt. He will get the pain of burning only when he will actually come into contact with the fire. Similarly it should be known with regard to other subjects / objects.
In the same way inferential cognition is to be known. In the explanation to aphorism 1.7 seer Vyaasa had clearly said that it cognizes chiefly the generic qualities / properties of the object. So by inference one knows the general properties of the object. Hence one do not get the cognizance of particular / specific properties of the object by verbal and inferential cognitions.
External organs are able to cognize the available gross objects i.e. cow, sun, earth, air etc. On the other hand the objects which are subtle, hidden / intercepted or distant, cannot be cognized by the external organs. Merely on account of non-cognizance by external organs, existence of such subtle, hidden or distant objects cannot be denied. Seer Vyaasa said that the Matter, its products, their properties, form, and the properties of Soul and GOD can be cognized internally by trance cognition. Such cognition is about the true form / nature and properties of the objects.
Seer Kapila had also accepted the internal cognizance of subtle, hidden and distant objects in his Saankhya Philosophy (aphorism 1.91); otherwise cognizance of GOD would not have been possible which would have lead to non-existence of GOD itself.
So the trance cognition = essential cognition is different from the verbal and inferential cognition, which is not only able to cognize the gross, subtle, hidden and distant objects, but also help to cognize the GOD. For these reasons this essential cognition = trance cognition is superior and one should perform hard to achieve it. Otherwise in the absence of trance cognition devotee will be remain mingled in the verbal knowledge of the objects and remain far away from his ultimate goal of life; and such devotee should treat the cognizance of Soul and GOD as dream for himself.
In Hindi:
संस्कृत में सूत्र की भूमिका : सा पुन:—ऋतम्भरा प्रज्ञा (श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्याम्) श्रुत = शब्द = आगम प्रमाण जन्य प्रज्ञा और अनुमान प्रमाण जन्य प्रज्ञा से (विशेषार्थत्वात्) विशेष अर्थ = पदार्थ के विशिष्ट = यथार्थ स्वरूप को दिखाने वाली होने से (अन्यविषया) भिन्न विषय वाली होती है॥
श्रुतमागमविज्ञानं तत्सामान्यविषयम्। न ह्यागमेन शक्यो विशेषोऽभिधातुम्। कस्मात्? न हि विशेषेण कृतसंकेतः शब्द इति। तथाऽनुमानं सामान्यविषयमेव। यत्र प्राप्तिस्तत्र गतिर्यत्राप्राप्तिस्तत्र न गतिरित्युक्तम्। अनुमानेन च सामान्येनोपसंहारः। तस्मात्छ्रुतानुमानविषयो न विशेषः कश्चिदस्तीति।
न चास्य सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टस्य वस्तुनो लोकप्रत्यक्षेण ग्रहणमस्ति। न चास्य विशेषस्या- प्रामाणिकस्याभावोऽस्तीति समाधिप्रज्ञानिर्ग्राह्य एव स विशेषो भवति भूतसूक्ष्मगतो वा पुरुषगतो वा। तस्माच्छ्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया सा प्रज्ञा विशेषार्थत्वादिति॥
(श्रुतम्) श्रुत अर्थात् (आगमविज्ञानम्) आगम प्रमाण जन्य ज्ञान है (तत्) वह (सामान्यविषयम्) सामान्य विषय वाला = पदार्थ के सामान्य अंश = धर्म को विषय बनाता है। (आगमेन) आगम प्रमाण से (विशेषः) पदार्थ के विशेष अर्थ = धर्म को (हि अभिधातुम्) निश्यच पूर्वक कहना (न शक्यः) सम्भव नहीं है। (कस्मात्) क्यों सम्भव नहीं है ? (हि) क्योंकि (शब्दः) शब्द का (कृतसंकेतः) किया हुआ संकेत (विशेषेण) पदार्थ के विशेष अर्थ = धर्म के लिए (न इति) नहीं होता।
(तथा) वैसे ही (अनुमानम्) अनुमान प्रमाण जन्य ज्ञान भी (सामान्यविषयम् एव) पदार्थ के सामान्य अंश = धर्म को ही विषय बनाने वाला है। जैसे (यत्र प्राप्तिः) जिसमें प्राप्ति = स्थानान्तर में जाने का गुण है (तत्र गतिः) उसमें गति है; और (यत्र अप्राप्तिः) जिसमें प्राप्ति नहीं है (तत्र न गतिः) उसमें गति नहीं है (इति उक्तम्) ऐसा अनुमान के विषय में (सूत्र १.७) कहा गया है। (च) और (अनुमानेन) अनुमान के द्वारा (सामान्येन) पदार्थ के सामान्य अंश = धर्म से ही (उपसंहारः) ज्ञान की समाप्ति हो जाती है। (तस्मात्) इसलिए पदार्थों का (कश्चित् विशेषः) कोई भी विशेष धर्म = ज्ञान (श्रुतानुमानविषयः) आगम और अनुमान प्रमाण का विषय (न अस्ति इति) नहीं होता।
(च) और (अस्य) इस (सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टस्य वस्तुनः) सूक्ष्म, व्यवधान वाली और दूरस्थ वस्तु का (लोकप्रत्यक्षेण) लौकिक बाह्य इन्द्रिय साध्य प्रत्यक्ष प्रमाण से (ग्रहणम्) ग्रहण = ज्ञान (न अस्ति) नहीं होता। (च) और (अप्रमाणकस्य) उक्त प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण न होने पर भी (अस्य विशेषस्य) इस वस्तु के विशिष्ट धर्मों का (अभावः) अभाव (न अस्ति) नहीं है; क्योंकि (भूतसूक्ष्मगतः वा पुरुषगतः वा) भूतसूक्ष्म = प्रकृति पर्यन्त सूक्ष्म पदार्थों के विशिष्ट धर्मों का तथा पुरुष = आत्मा, परमात्मा सम्बन्धी विशिष्ट धर्मों का (समाधिप्रज्ञानिर्ग्राह्य एव) समाधि जन्य ऋतम्भरा प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण होने से ही (सः) वह (विशेषः) विशेष = परप्रत्यक्ष (भवति) होता है। (तस्मात्) इसलिए (विशेषार्थत्वात्) पदार्थ के विशेष धर्मों को विषय बनाने के कारण (सा) वह (प्रज्ञा) ऋतम्भरा प्रज्ञा (श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्याम्) आगम और अनुमान प्रमाण जन्य प्रज्ञा से (अन्यविषया इति) भिन्न विषय वाली होती है॥
सम्प्रज्ञात समाधि काल में आन्तरिक प्रत्यक्ष की वैशारद्यता से उत्पन्न ऋतम्भरा प्रज्ञा, जो कि मात्र पदार्थ = विषय के यथार्थ स्वरूप का सम्प्रज्ञान = साक्षात् कराती है, श्रुत प्रमाण जन्य प्रज्ञा और अनुमान प्रमाण जन्य प्रज्ञा से सर्वथा भिन्न होती है।
श्रुत = आगम प्रमाण से पदार्थ के सामान्य धर्मों का बोध होता है। शब्द प्रमाण से पदार्थ = विषय के विशेष धर्मों का बोध नहीं होता, क्योंकि शब्द में वह शक्ति = सामर्थ्य ही नहीं है जो पदार्थ के विशेष धर्म का बोध करा सके। आगम प्रमाण में वेदादि सत्यशास्त्र आते हैं। इन वेदादि सत्यशास्त्रों से उत्पन्न शाब्दिक ज्ञान भ्रान्तिरहित होता हुआ भी, जब तक श्रवणचतुष्ठय की प्रक्रिया द्वारा साक्षात् नहीं किया जाता, तब तक श्रोता को केवल पदार्थों = विषयों के सामान्य धर्मों का ही ज्ञान होता है, उनके विशेष धर्मों के ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। एक सामान्य उदाहरण लेते हैं — जैसे किसी ने कहा कि “जल शीतलता प्रदान करता है।” इतने कथनमात्र से श्रोता को ज्ञान होता है — “जल में शीतलता प्रदान करने का धर्म है।” परन्तु इस कथन मात्र से न तो वक्ता और न ही श्रोता को शीतलता का अनुभव = साक्षात् होता है, जब तक श्रोता जल का स्पर्श या पान नहीं कर लेता, तब तक उसे जल के शीतलता रूपी धर्म का वास्तविक ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार अन्य पदार्थों = विषयों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए।
इसी प्रकार अनुमान जन्य प्रज्ञा को भी जानना चाहिए। अनुमान का लक्षण करते हुए महर्षि व्यास ने योगसूत्र १.७ के भाष्य में स्पष्ट कहा है कि अनुमान प्रमाण में पदार्थ के सामान्य धर्मों का ही विशेष रूप से ज्ञान होता है। अतः अनुमान प्रमाण भी पदार्थ के सामान्य धर्म का बोध = ज्ञान मात्र करवा देता है। अतः इन दोनों = शब्द और अनुमान प्रमाणों से ही पदार्थ = विषय के विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष नहीं होता।
लौकिक = बाह्य इन्द्रियों से तो उपलब्ध और प्राप्य स्थूल पदार्थों = विषयों का प्रत्यक्ष सम्भव होता है, यथा गौ, भूमि, सूर्य आदि। दूसरी ओर सूक्ष्म, व्यवहित = व्यवधान वाली और विप्रकृष्ट = दूरस्थ पदार्थों का = विषयों का ग्रहण बाह्य इन्द्रियों से सम्भव नहीं हो पाता। परन्तु इनके बाह्येन्द्रियों से ग्राह्य न होने मात्र से ही इनकी सत्ता का = इनके सामान्य और विशेष धर्मों का निषेध नहीं किया जा सकता। महर्षि व्यास कहते हैं कि प्रकृति और उसके सूक्ष्म विकारों के धर्मों का तथा पुरुष = जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप और धर्मों का समाधि प्रज्ञा = ऋतम्भरा प्रज्ञा द्वारा साक्षात् = आन्तरिक प्रत्यक्ष होता है। और यह प्रत्यक्ष पदार्थों = विषयों के यथार्थ स्वरूप का = धर्मों का यथार्थ विषयक होता है।
महर्षि कपिल ने सांख्यदर्शन में अबाह्य = आन्तरिक प्रत्यक्ष (सांख्य १.९०) द्वारा सूक्ष्म, व्यवधान वाली और दूरस्थ वस्तुओं = पदार्थों के प्रत्यक्ष को और लीनवस्तुओं = सूक्ष्म अतीन्द्रिय वस्तुओं का प्रत्यक्ष (सांख्य १.९१) स्वीकार किया है; अन्यथा इन्द्रियों आदि से ईश्वर का साक्षात्कार न होने से ईश्वर की सत्ता ही असिद्ध हो जाती।
अतः शब्द और अनुमान प्रमाण जन्य प्रज्ञा से समाधि प्रज्ञा = ऋतम्भरा प्रज्ञा विशिष्ट है जो न केवल स्थूल पदार्थों का, और सूक्ष्म, व्यवहित, दूरस्थ पदार्थों का, बल्कि आत्मा, परमात्मा का भी यथार्थ ज्ञान = साक्षात्कार कराने में समर्थ होती है। इसीलिए ही इस प्रज्ञा की विशेषता है, और इसकी प्राप्ति हेतु अत्यन्त पुरुषार्थ करना अत्यावश्यक है। वरन् इस समाधिप्रज्ञा के अभाव में साधक मात्र शाब्दिक ज्ञान में उलझा हुआ अपने लक्ष्य से कोसों दूर ही रहता है; और ऐसे साधक को अपने लिए, आत्मसाक्षात्कार और परमात्मसाक्षात्कार को स्वप्न समान ही समझना चाहिए।