Samveda/646
ईशे हि शक्रउ।स्तमूतये हवामहे जेतारमपराजितम्। स नः स्वर्षदति द्विषः क्रतुश्छन्द ऋतं बृहत्॥६४६
Veda : Samveda | Mantra No : 646
In English:
Seer : prajaapatiH | Devta : indraH | Metre : viraaT | Tone : gaandhaaraH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : iishe hi shakrastamuutaye havaamahe jetaaramaparaajitam . sa naH svarShadati dviShaH kratushChanda RRita.m bRRihat.646
Component Words : iishe. hi. shakraH.tam. uutaye. havaamahe. jetaaram. aparaajitam.a. paraajitam. sa. naH. svarShat.ati. dviShaH. kratuH. ChandaH. RRitam. aa. bRRihat.. aaapathau
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : प्रजापतिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : विराट् | स्वर : गान्धारः
विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा का आह्वान किया गया है।
पदपाठ : ईशे। हि। शक्रः।तम्। ऊतये। हवामहे। जेतारम्। अपराजितम्।अ। पराजितम्। स। नः। स्वर्षत्।अति। द्विषः। क्रतुः। छन्दः। ऋतम्। आ। बृहत्।७। आ.१९.अ.२.प.५०.थौ.
पदार्थ : (शक्रः) शक्तिशाली इन्द्र परमेश्वर (हि) निश्चय ही (ईशे) सकल जगत् का अधीश्वर है। (तम्) उसे, हम (ऊतये) रक्षा के लिए (हवामहे) पुकारते हैं। कैसे परमेश्वर को? (जेतारम्) जो सब वस्तुओं को जीत लेनेवाला है, तथा (अपराजितम्) जो स्वयं किसी से पराजित नहीं होता। (सः) वह परमेश्वर (नः) हमें (द्विषः) आन्तरिक तथा बाह्य शत्रु से (अति स्वर्षत्) पार करे। (ऋतुः) ज्ञान, कर्म, शिव संकल्प और यज्ञ, (छन्दः) गायत्री आदि छन्द, (ऋतम्) सत्य और (बृहत्) बृहत् नामक साम हमारे उपकारक हों ॥६॥‘त्वामिद्धि हवामहे’ (साम २३४) इस ऋचा पर गाया जानेवाला साम बृहत् साम कहलाता है ॥६॥
भावार्थ : विजेता, अपराजित परमात्मा का आश्रय लेकर उसके उपासक भी विजयी तथा अपराजित हो जाते हैं ॥६॥
टिप्पणी :अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का आह्वान किया गया है।
In Sanskrit:
ऋषि : प्रजापतिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : विराट् | स्वर : गान्धारः
विषय : अथ परमात्मानमाह्वयति।
पदपाठ : ईशे। हि। शक्रः।तम्। ऊतये। हवामहे। जेतारम्। अपराजितम्।अ। पराजितम्। स। नः। स्वर्षत्।अति। द्विषः। क्रतुः। छन्दः। ऋतम्। आ। बृहत्।७। आ.१९.अ.२.प.५०.थौ.
पदार्थ : (शक्रः) शक्तिशाली इन्द्रः परमेश्वरः (हि) निश्चयेन (ईशे) ईष्टे, सकलजगदधीश्वरोऽस्ति। (तम्) परमेश्वरम्, वयम् (ऊतये) रक्षायै (हवामहे) आह्वयामः। कीदृशं परमेश्वरम् ? (जेतारम्) सकलरिपुविजयिनम्, किञ्च (अपराजितम्) स्वयं केनापि अविजितम्। (सः) परमेश्वरः (नः) अस्मान् (द्विषः) आन्तराद् बाह्याद् वा शत्रोः (अति स्वर्षत्) अतिपारयतु। (क्रतुः) प्रज्ञानं, कर्म, शिवसंकल्पः, यज्ञश्च, (छन्दः) गायत्र्यादीनि छन्दांसि, (ऋतम्) सत्यम्, (बृहत्) बृहदाख्यं साम च, अस्माकमुपकारकाणि सन्तु ॥त्वामिद्धि हवामहे (साम० २३४) इत्यस्यामृचि अध्यूढं बृहदित्युच्यते ॥(ईशे) ‘ईष्टे’ इति प्राप्ते ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु’ अ० ७।१।४१ इति तकारलोपः। (स्वर्षत्) स्वरतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४ ॥६॥
भावार्थ : विजेतारमपराजितं परमात्मानमाश्रित्य तदुपासका अपि जेतारोऽपराजिताश्च जायन्ते ॥६॥
टिप्पणी:अथ पुनरपि परमात्मानमाह्वयति।