Samveda/954
इन्द्रस्तुराषाण्मित्रो न जघान वृत्रं यतिर्न। बिभेद वलं भृगुर्न ससाहे शत्रून्मदे सोमस्य (ङ)।।॥९५४
Veda : Samveda | Mantra No : 954
In English:
Seer : paavako.agnirbaarhaspatyo vaa, gRRihapatiyaviShThau sahasaH putraavanyataro vaa | Devta : indraH | Metre : tRRichaatmaka suuktam | Tone : madhyamaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : indrasturaaShaaNmitro na jaghaana vRRitra.m yatirna . bibheda vala.m bhRRigurna sasaahe shatruunmade somasya. 954
Component Words : indra .turaaShaaT. mitraH. mi .traH .na .jaghaana .vRRitrama .yati .na .vibheda .balam. bhRRiguH. na .sasaahe .shatruna. made .somasya.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : पावकोऽग्निर्बार्हस्पत्यो वा, गृहपतियविष्ठौ सहसः पुत्रावन्यतरो वा | देवता : इन्द्रः | छन्द : तृचात्मक सूक्तम् | स्वर : मध्यमः
विषय : अगले मन्त्र में जीवात्मा के कार्यों का वर्णन है।
पदपाठ : इन्द्र ।तुराषाट्। मित्रः। मि ।त्रः ।न ।जघान ।वृत्रम ।यति ।न ।विभेद ।बलम्। भृगुः। न ।ससाहे ।शत्रुन। मदे ।सोमस्य॥
पदार्थ : (इन्द्रः) मनुष्य का आत्मा (मित्रः न) सूर्य के समान (तुराषाट्) शीघ्रता के साथ विघ्नों को पराजित करता है, (यतिः न) संन्यासी के समान (वृत्रम्) पाप, दुर्व्यसन आदि को (जघान) नष्ट करता है, (भृगुः न) तपस्वी के समान (बलम्) आच्छादक अज्ञान को (बि भेद) छिन्न-भिन्न करता है और (सोमस्य) वीररस के (मदे) उत्साह में (शत्रून्) आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं को (ससहे) परास्त करता है ॥३॥यहाँ मालोपमा अलङ्कार है ॥३॥
भावार्थ : वीररस के मद में मनुष्य का आत्मा सब अज्ञान, विघ्न, पाप आदियों को पराजित करने में समर्थ हो जाता है ॥३॥इस खण्ड में परमात्मा और जीवात्मा के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥पञ्चम अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥पञ्चम अध्याय समाप्त ॥तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥
In Sanskrit:
ऋषि : पावकोऽग्निर्बार्हस्पत्यो वा, गृहपतियविष्ठौ सहसः पुत्रावन्यतरो वा | देवता : इन्द्रः | छन्द : तृचात्मक सूक्तम् | स्वर : मध्यमः
विषय : अथ जीवात्मनः कार्याणि वर्ण्यन्ते।
पदपाठ : इन्द्र ।तुराषाट्। मित्रः। मि ।त्रः ।न ।जघान ।वृत्रम ।यति ।न ।विभेद ।बलम्। भृगुः। न ।ससाहे ।शत्रुन। मदे ।सोमस्य॥
पदार्थ : (इन्द्रः) मनुष्यस्यात्मा (मित्रः न) सूर्यः इव (तुराषाट्) सत्वरं विघ्नानां पराजेता भवति। [छन्दसि सहः अ० ३।२।६३ इति सहेर्ण्विः प्रत्ययः। ‘सहेः साढः सः।’ अ० ८।३।५६ इति षत्वम्। तूरं तुर्णं सहते अभिभवति विघ्नादीनिति तुराषाट्।] (यतिः न) संन्यासी इव (वृत्रं) पापदुर्व्यसनादिकं (जघान) हन्ति। (भृगुः न) तपस्वी इव। [भृज्जति तपसा शरीरमिति भृगुः। भ्रस्ज पाके धातोः ‘प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च उ० १।२८’ इति कुः प्रत्ययो धातोः सकारस्य लोपश्च] (बलम्) आच्छादकम् अज्ञानम्। [बल संवरणे।] (बिभेद) भिनत्ति। अपि च (सोमस्य) वीररसस्य (मदे) उत्साहे (शत्रून्) आन्तरान् बाह्यांश्च रिपून् (ससहे) अभिभवति। [जघान, बिभेद, ससाहे इति सर्वत्र वर्तमानेऽर्थे लिट्] ॥३॥अत्र मालोपमालङ्कारः ॥३॥
भावार्थ : वीररसस्य मदे मनुष्यस्यात्मा निखिलान्यज्ञानविघ्नपापादीनि पराजेतुं प्रभवति ॥३॥अस्मिन् खण्डे परमात्मजीवात्मनोर्विषयस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥
टिप्पणी:१. अथ० २।५।३, ‘इन्द्र॑स्तुरा॒षाण्मि॒त्रो वृ॒त्रं यो ज॒घान य॒तीर्न’ इति पूर्वार्धपाठः, उत्तरार्धे ‘ससाहे’ इत्यत्र ‘स॑सहे॒’।