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Samveda/1025

इन्द्राय साम गायत विप्राय बृहते बृहत्। ब्रह्मकृते विपश्चिते पनस्यवे॥१०२५

Veda : Samveda | Mantra No : 1025

In English:

Seer : nRRimedha aa~NgirasaH | Devta : indraH | Metre : uShNik | Tone : RRIShabhaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : indraaya saama gaayata vipraaya bRRihate bRRihat . brahmaakRRite vipashchite panasyave.1025

Component Words :
indraaya .saama .gaayata. vipraaya .vi. praaya .bRRihate. bRRihat .brahmakRRite .brahma. kRRite .vipashchite .vipaH .chite .panasyave.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : नृमेध आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ३८८ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ आचार्य शिष्यों को कह रहा है।

पदपाठ : इन्द्राय ।साम ।गायत। विप्राय ।वि। प्राय ।बृहते। बृहत् ।ब्रह्मकृते ।ब्रह्म। कृते ।विपश्चिते ।विपः ।चिते ।पनस्यवे॥

पदार्थ : हे शिष्यो ! तुम (विप्राय) मेधावी, (बृहते) महान्, (ब्रह्मकृते) जल, अन्न, धन, वेद, विद्युत्, प्राण, मन, वाणी, श्रोत्र, हृदय आदियों के रचयिता, (विपश्चिते) विद्वान् सर्वज्ञ (पनस्यवे) दूसरों को स्तुतिमान् अर्थात् कीर्तिमान् बनाना चाहनेवाले, (इन्द्राय) विघ्नों के विदारक परमेश्वर के लिए (बृहत् साम) ‘त्वामिद्धि हवामहे’ साम०, २३४, ८०९ इस ऋचा पर गाये जानेवाले बृहत् नामक साम को (गायत) गाओ ॥१॥

भावार्थ : आचार्य के अधीन गुरुकुल में निवास करनेवाले शिष्यों को चाहिए कि वे अनेक गुणोंवाले जगदीश्वर को लक्ष्य करके बृहत् आदि सामों को गायें और स्वयं भी उसके गुणों का अनुकरण करें ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : नृमेध आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३८८ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्राचार्यः शिष्यान् प्राह।

पदपाठ : इन्द्राय ।साम ।गायत। विप्राय ।वि। प्राय ।बृहते। बृहत् ।ब्रह्मकृते ।ब्रह्म। कृते ।विपश्चिते ।विपः ।चिते ।पनस्यवे॥

पदार्थ : भोः शिष्याः ! यूयम् (विप्राय) मेधाविने। [विप्र इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५।] (बृहते) महते, (ब्रह्मकृते) जलान्नधनवेदविद्युत्प्राणमनो- वाक्छ्रोत्रादीनां रचयित्रे। [ब्रह्मन् इति जलान्नधननामसु पठितम्। निघं० १।१२, २।७, २।१०। तद्यद् वै ब्रह्म स प्राणः। जै० उ० ब्रा० १।११।१।२। विद्युद् ब्रह्मेत्याहुः। श० १४।८।७।१। वेदो ब्रह्म। जै० उ० ब्रा० ४।११।४।३। मनो ब्रह्मेति व्यजानात्। तै० आ० ९।४।१। श्रोत्रं वै ब्रह्म। ऐ० ब्रा० २।४०। वाग् वै ब्रह्म। श० २।९।४।१०।] (विपश्चिते) विदुषे, सर्वज्ञाय, (पनस्यवे) पनः स्तुतिं कीर्तिं परेषामिच्छते। [छन्दसि परेच्छायां क्यच्,ततः उः प्रत्ययः।] (इन्द्राय) विघ्नविदारकाय परमेश्वराय (बृहत् साम) ‘त्वामिद्धि हवामहे’ साम० २३४, ८०९ इत्यस्यामृचि गीयमानं बृहदाख्यं साम (गायत) सस्वरमुच्चारयत ॥१॥

भावार्थ : आचार्याधीनं गुरुकुले वसद्भिः शिष्यगणैर्बहुगुणगणविशिष्टं जगदीश्वरमभिलक्ष्य बृहदादीनि सामानि गेयानि स्वयमपि च तद्गुणा अनुकरणीयाः ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।९८।१, अथ० २०।६२।५, उभयत्र ‘ब्रह्मकृते’ इत्यत्र ‘ध॒र्म॒कृते॑’ इति पाठः। साम० ३८८।