अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः॥१२॥
Padas Name : Samaadhi Paada / Trance | Sutra No : 12
(tat) These mental modifications / activities are (nirodhaH) restrained (abhyaasa-vairaagyaabhyaam) by Practice and Desirelessness.
Now the means of keeping away the (a) evil functioning of these five modifications, and (b) concentration of objects other than GOD, are explained — (1) Practice of means as suggested with reference to worship and (2) Desirelessness i.e. to remain away from all evil works and sins. By these two means, restrain the five mental modifications as above and keep these involved in worship of GOD.
(Rigvedadibhasyabhuumika - Worship)
chittanadii naamobhayato vaahinii. vahati kalyaaNaaya vahati paapaaya cha. yaa tu kaivalyapraagbhaaraa vivekaviShayanimnaa saa kalyaaNavahaa. sa.msaarapraagbhaaraa.avivekaviShayanimnaa paapavahaa. tatra vairaagyeNa viShayasrotaH khiliikriyate, vivekadarshanaabhyaasena vivekasrota udghaaTyata ityubhayaadhiinashchittavRRittinirodhaH.
(chitta-nadii-naama) The stream of mind (ubhayato-vaahinii) flows in two ways, i.e. (vahati kalyaaNaaya) flows for welfare (cha) and (vahati paapaaya) flows for sin. (yaa tu) That which flows (kaivalya-praagbhaaraa) towards salvation (viveka-viShaya-nimnaa) down the plane of discriminative knowledge, (saa) that is (kalyaaNa-vahaa) the stream of welfare, and that (sa.nsaara-praagbhaaraa) flows towards the material world and its objects, i.e. finding happiness from material objects (aviveka-viShaya-nimnaa) down the plane of indiscriminative ignorance, (paapa-vahaa) is the stream of sin.
(tatra) Among the above streams, (viShaya-srotaH) the flow of mind towards the material objects and their desire-ness is (khiliikriyate) stopped (vairaagyeNa) by Desirelessness; and (viveka-srota) its flow towards discrimination (udghaaTyate) is opened (viveka-darshana-abhyaasena) by habituating the mind to the experience of true knowledge of Mind and Soul.
(iti) Hence (chitta-vritti-nirodhaH) restraint of mental modifications is (ubhayaadhiinaN) dependent upon both i.e. Desirelessness and Practice.
It is must to restrain the modifications during the worship. Not only at the time of worship, even during the social and normal life it is important to check the perversion = unreal cognition in order to be successful in life and move on the path of Yoga. The means to restrain these modifications are Practice and Desirelessness. Both the means are complimentary to each other, so use of both the means is necessary for restraint of modifications. By Desirelessness one sees the defects in the worldly objects and thereby stops the outward movements of mind and senses which was in practice since eternity; and by Practice of discriminating knowledge internal movement of mind is started which helps in restraint of modifications.
The stream of mind flows in two ways. The first type of stream flows on the path of discriminating knowledge and moves towards for achievement of salvation. The second type of stream flows on the path of nescience and moves towards the bonds of world. This flow results in accumulation of sins / vice. The second flow being on the path of nescience, and it strengthens the vicious cycle of afflictive modification - residual potency - modification; so this stream is said as of sin. By flowing on the first path Soul is able to attain the salvation and by flowing on the second path Soul remains involved in the life-cycle and experiences various types of pains.
Normally a man is having both types of streams of mind. But the stream on the path of welfare is very light, and as a footway where flow had not taken place for many births; and the second stream which is flowing on the path of worldly affairs and material enjoyments, and being on the path of sin is flowing in the strong way and its view is very proper. So for the devotee, who wants to move on the path of Yoga, a two-fold program is advised —
1. By Desirelessness on seeing the defects of material enjoyments (i.e. pains, affliction, nescience etc.), check the stream flowing on the path of sin i.e. have the sense of aversion for this path so that the eternal flow on this path is stopped; and
2. By Practice of discriminating knowledge of Soul and Matter, stream of welfare is to be started, continued and strengthened.
The doors for the stream on the path of worldly affairs are nescience, attachment, aversion, lust-ness, sex, anger, greed, illusion and egoism etc. Because of these defects, a person is involved in achieving the material enjoyments and his modifications flows on the path of sin and remains involved in the life-cycle. In order to check this stream, one has to see the defects of material enjoyments and close these doors where-from the mental modifications are flowing on this path. For this Practice of Restraints (aphorism 2.30) and Observances (aphorism 2.33) is very helpful. By performing Restraints and Observances, stream on the path of welfare starts flowing and one is able to move on the path of welfare. It is mandatory for a devotee, who wants to move on the path salvation, to check his relationship towards the worldly enjoyments. But due to residual potencies accumulated since eternity and practice of outward flow of mental modifications, it is not easy to control the defects of attachment, aversion, lust-ness, greed, anger, egoism etc. On account of practice of outward mental modifications during so many life-states, a person naturally moves on strong path of afflictive modification - residual potency - modification. So Lord Krishna advises in Giita —
asa.nshayam mahaabaaho manodurnirgraham chalam.
abhyaasena tu kounteya vairaagyeNa cha grihyate. (Giita 6.35)
O Arjuna! There is no suspicion that the mind is very unsteady, and can be controlled with great difficulty. But by constant Practice and Desirelessness towards the sin, it can be controlled.
Hence restraint of mental modifications is dependent upon both i.e. Desirelessness and Practice, and it becomes easy to move on the path of restraint of modifications by Practice and Desirelessness and devotee becomes able to achieve his supreme goal of salvation. There is no other path for this.
In Hindi:
संस्कृत में सूत्र की भूमिका : अथाऽऽसां निरोधे क उपाय? इति—(अभ्यासवैराग्याभ्याम्) अभ्यास और वैराग्य के द्वारा (तत्) उन पाँचों चित्त वृत्तियों का (निरोधः) निरोध होता है।
“इन पाँच वृत्तियों के बुरे कामों और अनीश्वर के ध्यान से हटाने का उपाय कहते है कि — (अभ्यास०) जैसा अभ्यास उपासना प्रकरण में आगे लिखेंगे वैसा करें और वैराग्य अर्थात् सब बुरे कामों और दोषों से अलग रहें। इन दोनों उपायों से (तत् निरोधः) पूर्वोक्त पांच वृत्तियों को रोक के उनका उपासना योग में प्रवृत्त रखना।” (ऋ० भू॰ उपासनाविषय)
चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी। वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥
(चित्तनदी नाम) चित्त रूप नदी (उभयतो वाहिनी) दो ओर बहने वाली है। (वहति कल्याणाय) वह कल्याण के लिए बहती है; (च) और (वहति पापाय) पाप के लिए बहती है। (या तु) जो तो (कैवल्यप्राग्भारा) कैवल्य = मोक्ष की ओर उन्मुख होकर (विवेकविषयनिम्ना) विवेक मार्ग = विवेकख्याति की ओर झुकी हई है; (सा) वह (कल्याणवहा) कल्याण के लिए बहती है। और जो (संसारप्राग्भारा) संसार = सांसारिक विषय भोगों की ओर उन्मुख होकर (अविवेकविषयनिम्ना) अविवेक = अज्ञान मार्ग की ओर झुकी हुई है; वह (पापवहा) पाप की ओर बहती है। (तत्र) उन दोनों में से, जो पाप की ओर बहने वाली वृत्ति है, उसका (वैराग्येण) वैराग्य के द्वारा (विषयस्रोतः) सांसारिक विषयों की ओर जाने वाला प्रवाह (खिलीक्रियते) बन्द किया जाता है। और (विवेकदर्शनाभ्यासेन) विवेक ज्ञान = सत्त्वपुरुषान्यताख्याति रूप विवेकज्ञान के अभ्यास द्वारा (विवेकस्रोतः) मोक्ष = कैवल्य की ओर जाने वाला प्रवाह (उद्घाट्यते) खोला जाता है। (इति) इस प्रकार (उभयाधीनः) अभ्यास और वैराग्य के आधीन (चित्तवृत्तिनिरोधः) चित्तवृत्ति का निरोध है।
उपासना काल में चित्त की पाँचों वृत्तियों का निरोध आवश्यक है। न केवल उपासना काल में, वरन् व्यवहार काल में भी व्यक्ति के लिए, अपनी वृत्तियों को क्लिष्ट = क्लेश सहित न होने देना भी, जीवन की सफलता तथा योगमार्ग पर आगे बढ़ने हेतु परम आवश्यक है। इन वृत्तियों के निरोध के उपाय, अभ्यास और वैराग्य हैं। दोनों ही उपाय एक दूसरे के पूरक होने से, इन दोनों का प्रयोग और सहयोग वृत्तिनिरोध हेतु आवश्यक है। वैराग्य के द्वारा विषयों में दोष दृष्टि से, अनादि काल से चला आ रहा स्वाभाविक बहिर्मुखी = संसार की ओर जाने वाला प्रवाह रोककर; विवेकज्ञान के अभ्यास से आन्तर = आत्माभिमुख प्रवाह को चालू करने से ही चित्तवृत्ति निरोध होता है।
चित्त रूपी नदी अपनी दो धाराओं में से, एक धारा द्वारा कल्याण के लिए = मोक्ष के लिए विवेकख्याति के मार्ग पर बहती है; और दूसरी धारा सांसारिक विषयों की प्राप्ति के लिए, अविवेक = अज्ञान के मार्ग पर बहने के कारण, पाप की ओर बहती है। दूसरी धारा का मार्ग अविद्या होने से, यह धारा क्लिष्ट वृत्ति-संस्कार-वृत्ति चक्र को ही प्रशस्त करती है; अतः यह धारा पापवहा कही गई है। पहली धारा पर चलकर जीव मोक्ष को प्राप्त करता है, और दूसरी धारा में बहता हुआ संसार के आवागमन के विषम चक्र में ही लगा रहता है।
सामान्यतः मनुष्य के लिए चित्त की दोनों प्रकार की धाराएँ होती हैं; परन्तु कल्याण पथ वाली धारा बहुत ही हल्की तथा कटी-फटी सी होती है, जैसे कि इस पर जन्म-जन्मान्तर से रुख ही न हुआ हो, तथा दूसरी धारा जो कि संसार सागर की ओर, विषयभोगों के मार्ग पर बहती है, वह पापवाहिनी धारा सुदृढ़ और ठीक प्रकार से बह रही होती है। अतः योगमार्ग के पथिक के लिए दो सूत्री कार्यक्रम निम्न प्रकार से बताया गया है :—
१. वैराग्य के द्वारा विषयों के दोष = दुःख, क्लेश, अज्ञान आदि को देखते हुए, इस पापवहिनी = संसार मार्ग पर बहने वाली धारा को अवरुद्ध करे अर्थात् इस मार्ग से विमुख होकर इसके अनवरत प्रवाह को सुखाए। तथा,
२. विवेकज्ञान = प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान रूप विवेकख्याति के अभ्यास के द्वारा कल्याणवाहिनी = मोक्ष पथ की ओर जाने वाली धारा के प्रवाह को चालू करे एवम् सुदृढ़ बनाए।
संसार की ओर बहने वाली धारा में बहने हेतु अविद्या, राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार रूपी द्वार हैं। इन्हीं द्वारों के माध्यम से, व्यक्ति की वृत्तियाँ विषयों = भोगों को प्राप्त करने से संसार पथ पर अग्रसर रहती हैं। इस धारा को सुखाने हेतु विषयों में दोषदर्शन द्वारा, इन द्वारों को धीरे-धीरे बन्द करना होता है; जिसके लिए आरम्भ से ही यम-नियम[1] रूपी साधन परम सहायक सिद्ध होते हैं। यम-नियमों के परिपालन से ही व्यक्ति के लिए कल्याणपथ की ओर जाने वाली धारा धीरे-धीरे सुदृढ़ होती जाती है। मोक्षमार्ग के पथिक के लिए संसार के विषयों से सम्बन्ध तोड़ना परमावश्यक है। परन्तु जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों और बहिर्मुखी वृत्ति प्रवाह के अभ्यास के कारण से राग, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि दोषों को छोड़ना कोई सरल कार्य नहीं है। जन्म-जन्मान्तर के अभ्यास के कारण पुरुष, मन के माध्यम से इस क्लिष्ट वृत्ति-संस्कार-वृत्ति के सुदृढ़़ पथ पर अनायास ही दौड़ता है। अतः गीता में भी श्रीकृष्ण इसी उपाय को कहते हैं —
असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ ६.३५॥
हे अर्जुन! इसमें सन्देह नहीं कि मन अत्यन्त चंचल है, बड़ी कठिनता से वश में आता है। किन्तु निरन्तर अभ्यास और बुराई के प्रति वैराग्य से उसे अवश्य वश में किया जा सकता है।
अतः अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही इस दुर्गम पथ पर चलना सम्भव हो पाता है और योगमार्ग का पथिक अपने परम लक्ष्य कैवल्य को प्राप्त करने में सफल हो सकता है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है।
[1] अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥ योग० २.३०॥
शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥ योग० २.३२॥