तीव्रसंवेगानामासन्नः॥२१॥
Padas Name : Samaadhi Paada / Trance | Sutra No : 21
(tiivra-samvegaanaam) Yogis, who are having keen level of Supreme Desirelessness, (aasannaH) their attainment of trance is nearer.
samaadhilaabhaH samaadhiphala.m cha bhavatiiti.
For the Yogi who is having intense level of adoption of means and having keen level of Supreme Desirelessness, (samaadhilaabhaH) attainment of trance (cha) and (samaadhiphalam) fruits of trance are (bhavati iti) faster than those of other eight categories of Yogis.
All the devotees = yogis are not able to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruit salvation in the same time frame. All those adopting the means of Yoga are not able to achieve the same level even. Why is it so ? This is replied by saying that there is difference in level of energy for adoption of means and also in level of Supreme Desirelessness of devotee. Seer Vyaasa said that on account of mild, middling and intense energy levels of adoption of means of yoga, there are three descriptions of Yogis who intend to achieve Ultra-cognitive Trance. Here from the term 'means of Yoga' means performance of accessories of Yoga with faith etc. These three categories are to be understood as follows :-
1. Mild energy level - Those who adopt the means of Yoga with least priority i.e. mildly = laxly, are at mild-level;
2. Middling energy level - Those who adopt the means of Yoga with more priority as compared to mild-level, are at middling-level; and
3. Intense energy level - Those who adopt the means of Yoga with top priority and consider that this is the most important work of their life with whole-hearted devotion for it, are at intense-level.
Now all the above categories are further categorised in three levels on account of level of Supreme Desirelessness which is as follows :-
1. Mild-level - Yogi whose level of Supreme Desirelessness is least;
2. Middle-level - Yogi whose level of Supreme Desirelessness is of medium level; and
3. Keen-level - Yogi whose level of Supreme Desirelessness is top-most.
The mild, middling or intense level of adoption of means of Yoga, by the Yogis depend on their residual potencies, level of worship adopted in previous births, level of devotion to GOD and yoga in the present life, and knowledge of vedic scriptures. In the same way the level of Supreme Desirelessness also depends on his residual potencies, knowledge of Vedic scriptures, cognizance level of Soul and level of faith-devotion to GOD.
So there are nine descriptions of Yogis as above i.e. 1. Mild-energy and Mild level, 2. Mild-energy and Middle level, 3. Mild-energy and Keen Level; 4. Middling-energy and Mild level, 5. Middling-energy and Middle level, 6. Middling-energy and Keen Level; 7. Intense-energy and Mild level, 8 Intense-energy and Middle level, 9. Intense-energy and Keen Level.
Out of above, the devotee with the intense energy level for adoption of means and with intense level of Supreme Desirelessness attains the Ultra-cognitive Trance and its fruits in the least time. So with the reduction in the level of adoption of means of Yoga and Supreme Desirelessness, the time to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits increases. Every previous level of Yogi from the last 9th category takes more time to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits. So the first type of yogi with the mild-energy and mild level of Supreme Desirelessness takes the highest time to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits. In other words we can say that every next level of yogi takes less time to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits as compared to his previous level and ninth type of yogi take least time to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits.
Now what is that time? There is no indication to this in the scriptures. In fact the worship for salvation do get complete in more than one life. In such case if some Yogi had spent any time for this worship till previous life, then he will take less time for him to to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits in the present life. Similarly this worship also depends on level of adoption of means of accessories of Yoga, devotion to true GOD, faith, knowledge obtained through Vedic scriptures etc. Hence seer Kapila had said in Saankhya Philosopy as—
na kaalaniyamo vaamadevavat. (Saankhya Philosopy 4.20)
There is no rule of time for achieving fruits of trance; someone achieve fastly, other slowly, someone achieves in the present life and others in the future lives, as in case of seer Vaamadeva. Seer Vaamadeva had achieved the fruits of trance in the present life on account of worship in the previous lives and adoption of means of Yoga with highest intensity and keen level of Supreme Desirelessness.
So the devotee need to adopt the means of Yoga with the intense energy and obtain the keen level of Supreme Desirelessness in order to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits in the present life as soon as possible.
In Hindi:
संस्कृत में सूत्र की भूमिका : ते खलु नव योगिनो मृदुमध्याधिमात्रोपाया भवन्ति। तद्यथा मृदूपायो मध्योपायोऽधिमात्रोपाय इति। तत्र मृदूपायस्त्रिविधः मृदुसंवेगो मध्यसंवेगस्तीव्रसंवेग इति। तथा मध्योपायस्तथाऽधिमात्रोपाय इति। तत्राधिमात्रोपायानाम् —(तीव्रसंवेगानाम्) तीव्र-संवेग वाले योगियों को समाधि की सिद्धि (आसन्नः) शीघ्र ही होती है।
समाधिलाभः समाधिफलं च भवतीति॥
अधिमात्र उपाय और तीव्र संवेग वाले योगियों को (समाधिलाभः) समाधि का लाभ = सिद्धि (च) और (समाधिफलम्) समाधि का फल = कैवल्य = मोक्ष (आसन्नः = शीघ्र ही प्राप्त) (भवति इति) होता है॥
असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति और उसका फल कैवल्य सभी योगियों को एक ही समान काल में नहीं मिलता। योग के उपायों का अभ्यास करने वाले सभी योगी एक समान स्तर को प्राप्त नहीं कर पाते, ऐसा क्यो? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि योगियों के द्वारा अपनाए गए उपायों और परवैराग्य के स्तर भेद के कारण ऐसा होता है। महर्षि व्यास कहते हैं कि मृदु, मध्य और अधिमात्र उपायों और संवेग के भेद से असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति में सलंग्न योगी नौ प्रकार के होते हैं। पहले वर्गीकरण के अनुसार मृदु उपाय वाले योगी, मध्य उपाय वाले योगी और अधिमात्र उपाय वाले योगी होते हैं। यहाँ उपाय से अभिप्राय श्रद्धा आदि पूर्वक अष्टाङ्गयोग का अनुष्ठान = अभ्यास करना है। मृदु, मध्य और अधिमात्र को निम्न प्रकार से समझना चाहिए —
१. मृदूपाय — जो उपरोक्त उपायों को मन्द = शिथिल = अल्प रूप से अपनाते हैं वे मृदूपाय वाले योगी कहलाते हैं।
२. मध्योपाय — जो उपरोक्त उपायों को मध्य रूप से अर्थात् न तीव्र और न मन्द रूप से अपनाते हैं वे मध्योपाय वाले योगी कहलाते हैं।
३. अधिमात्रोपाय — जो उपरोक्त उपायों को तीव्रता पूर्वक अपनाते हैं वे अधिमात्रोपाय वाले योगी कहलाते हैं।
इन तीन श्रेणी के योगियों के आगे संवेग के स्तर भेद से तीन-तीन भेद किए हैं। यहाँ संवेग से अभिप्राय “परवैराग्य” है। मृदु, मध्य और तीव्र संवेग को निम्न प्रकार से समझना चाहिए —
१. मृदुसंवेग — जिस योगी का परवैराग्य का स्तर मन्द = अल्प है; वह मृदुसंवेग वाला होता है।
२. मध्यसंवेग — जिस योगी का परवैराग्य का स्तर न मन्द और न तीव्र है; वह मध्यसंवेग वाला होता है।
३. तीव्रसंवेग — जिस योगी का परवैराग्य का स्तर अत्यधिक = तीव्र है; वह तीव्रसंवेग वाला होता है।
योगियों द्वारा अनुष्ठित श्रद्धा आदि पूर्वक अष्टाङ्गयोग के अभ्यास का मृदु, मध्य और अधिमात्र स्तर, उनके संस्कारों, पूर्वजन्म कृत साधना के स्तर, वर्तमान जन्म में ईश्वर और योग के प्रति अभिरुचि, वेदादि सत्यशास्त्रों के ज्ञान के आधार पर निर्भर करता है। इसी प्रकार परवैराग्य में मृदुता, मध्यता और तीव्रता भी उसके संस्कारों, वेदादि सत्यशास्त्रों के ज्ञान, पुरुषदर्शन का अभ्यास तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धा, विश्वास और अभिरुचि के स्तर के आधार पर निर्भर करती है।
अतः ये नौ प्रकार के योगी निम्न प्रकार के हैं —
मृदुपायवाले — १. मृदूपाय-मृदुसंवेग; २. मृदूपाय-मध्यसंवेग; ३. मृदूपाय-तीव्रसंवेग;
मध्योपायवाले — ४. मध्योपाय-मृदुसंवेग; ५. मध्योपाय-मध्यसंवेग; ६. मध्योपाय-तीव्रसंवेग;
अधिमात्रोपायवाले — ७. अधिमात्रोपाय-मृदुसंवेग; ८. अधिमात्रोपाय-मध्यसंवेग; तथा
९. अधिमात्रोपाय-तीव्रसंवेग।
इन नौ प्रकार के योगियों में से अधिमात्रोपाय-तीव्रसंवेग वाले योगी को असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि तथा समाधि का फल कैवल्य शीघ्रता से प्राप्त होता है। जितना-जितना उपायों का स्तर और परवैराग्य का स्तर कम होता जाता है, उतना-उतना योगी के लिए समाधि की सिद्धि और कैवल्य प्राप्ति का काल बढ़ता जाता है। इस प्रकार हर पिछले स्तर का योगी अपने अगले वाले स्तर के योगी की अपेक्षा अधिक काल असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि और कैवल्य प्राप्ति हेतु लगाता है। प्रथम स्तर के योगी अर्थात् मृदूपाय-मृदुसंवेग वाले योगी को सबसे अधिक काल लगता है। इसको इस प्रकार से भी जान सकते हैं कि हर अगले स्तर वाले योगी को पहले स्तर वाले योगी की अपेक्षा कम काल लगाना होता है, और नवम् प्रकार के योगी को अन्यों की अपेक्षा से सबसे शीघ्र असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि और कैवल्य की प्राप्ति होती है।
यह काल कितना है इसके बारे में शास्त्रों में कोई निश्चित समय नहीं दिया गया। वस्तुतः मोक्ष = कैवल्य की साधना कई जन्मों में जाकर पूरी होती है। ऐसे में जो पूर्व जन्मों में इस हेतु काल लगा चुका है, उस योगी को वर्त्तमान जन्म में अन्यों की अपेक्षा कम काल लगेगा। फिर यह साधना, योगाङ्गों के अनुष्ठान, सच्चे ईश्वर के प्रति आस्था, श्रद्धा, विश्वास और वेदादि सत्यशास्त्रों से प्राप्त ज्ञान के स्तर पर भी निर्भर करती है। अतः महर्षि कपिल ने सांख्यदर्शन में कहा है —
न कालनियमो वामदेववत्॥ सांख्य ४.२०॥
अर्थात् समाधि की सिद्धि में काल नियम नहीं है; किसी को शीघ्र, किसी को देर से, किसी को इसी जन्म में और किसी को अगले जन्म में समाधि लाभ और समाधि फल की प्राप्ति होती है, वामदेव के समान। ऋषि वामदेव को जैसे पूर्व जन्म में अनुष्ठान किए गए अष्टाङ्गयोग के साधनों और परवैराग्य के अनुष्ठान से इसी जन्म में सिद्धि प्राप्त हो गई थी।
अतः योगी को अधिमात्र उपायों और तीव्र परवैराग्य को अपनाने हेतु प्रयत्नशील रहना चाहिए, तभी शीघ्रातिशीघ्र असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति और समाधिफल मोक्ष की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी।