मृदुमध्याधिमात्रत्वात्ततोऽपि विशेषः॥२२॥
Padas Name : Samaadhi Paada / Trance | Sutra No : 22
Of the intense energetic Yogis with keen level of Supreme Desirelessness, (mridu-madhya-adhimaatratvaat) because of mild, middling and intense level (tataH api) further also (visheShaH) there is differentiation for attainment of trance and furits of trance.
mRRidutiivro madhyatiivro.adhimaatratiivra iti. tato.api visheShaH tadvisheShaadapi mRRidutiivrasa.mvegasyaasannaH, tato madhyatiivrasa.mvegasyaasannatarastasmaadadhimaatratiivrasa.mvegasyaadhimaatropaa-yasyaapyaasannatamaH samaadhilaabhaH samaadhiphala.m cheti.
The keen level of samvega = Supreme Desirelessness is further classified as (mridu-tiivraH) mild-intense, (madhya-tiivraH) middling-intense and (adhimaatra-tiivraH iti) most-intense. (tataH api visheShaH) With regard to above levels there is differentiation by these too.
(tat visheShaat) By that differentiation (api) too, for the (mridu-tiivra-samvegasya) yogi with mild-intense level of Supreme Desirelessness, (aasannaH) attainment of trance and its fruits are fast. (tataH) As compared to above level (madhya-tiivra-samvegasya) yogi with middling-intense level of Supreme Desirelessness, (aasannataraH) attainment of trance and its fruits are speedier. (tasmaat) As compared to the above level (adhimaatra-tiivra-samvegasya) yogi with most-intense level of Supreme Desirelessness and (adhimaatra-upaayasya) with intense level of adoption of means (api) too, (samaadhi-laabhaH) attainment of trance (cha) and (samaadhi-phalam) fruits of trance are (aasannatamaH iti) are speediest.
In the last aphorism it was shown that the yogi, who adopt accessories of yoga with the intense energy and have reached to the keen level of Supreme Desirelessness, attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits faster than other 8 levels of yogis. Now seer Patanjali further classify the keen level of Supreme Desirelessness into three levels namely mild, middling and intense and declares that there is differentiation for attainment of trance and its fruits. So, for the yogis, who had adopted the accessories of Yoga with faith etc. with intense energy and had achieved the keen level of Supreme Desirelessness, the keen level of Supreme Desirelessness is further divided into mild, middling and intense level.
What is supreme desirelessness ? As per aphorism 1.16 it is thirstless-ness towards the "Qualities" on account of practice of cognizance of Soul. Seer Vyaasa in his commentary wrote - "GYaanasyaiva paraakaaShThaa vairaagyam" i.e. Desirelessness is highest perfection of discriminative knowledge of Soul and Matter. For the yogi, thirstless-ness towards Qualities of Illumination etc. increases in proportion to increase in the practice of cognizance of Soul and GOD. Similarly the level of Desirelessness also increases in proportion to increase in the practical knowledge of Vedas and Vedic scriptures. Just verbal knowledge of Vedas and vedic scriptures will not result in anything. In this regard hymn of Rigveda is very clear —
richo akShare parame vyomanyasmindevaa adhi vishve niSheduH.
yastanna veda kimrichaa kariShyati ya ittadvidusta ime smaasate. (Rig. 1.164.39)
i.e. the one, who do not know the supreme, immortal and omnipresent GOD in whom the whole universe, all intellectuals and all living being resides and who is the principle purport of Vedas, can gain any pleasure-ness from Vedas ? No - but one who knows and cognizes GOD by becoming virtuous and yogi by the study of Vedas, they only experience the pleasure-ness of complete freedom on being existing in the form of GOD. (Light of Truth - Chapter 3).
So yogi gets benefitted in his life only on applying the secrets of knowledge of Vedic hymns by meditation, concentration and cognizance. By knowing and applying the form, properties of Matter, Soul and GOD in true meanings, yogi can reach up to the highest perfection of knowledge i.e. intense level of keen Supreme Desirelessness. It should be kept in mind that the level of Supreme Desirelessness is the proximate mean to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits. So higher the level of Supreme Desirelessness, faster is the success for attainment of Ultra-cognitive Trance and its fruits.
The yogi, whose keen level of Supreme Desirelessness is intense, will attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits in the least time. As compared to this, the yogi, whose keen level of Supreme Desirelessness is at middling stage, will take more time to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits. It means that the time taken by this yogi to make his level of Supreme Desirelessness to the most-intense level, is the extra time for attaining the Ultra-cognitive Trance and its fruits. Similarly the yogi, whose keen level of Supreme Desirelessness is at mild stage, will take some more extra time to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits. It means that the time taken by this yogi to make his level of Supreme Desirelessness to the most-intense level, is the extra time for attaining the Ultra-cognitive Trance and its fruits.
So by adopting the accessories of Yoga with intense energy, yogi should practice to achieve the most-intense level of Supreme Desirelessness in order to attain the Ultra-cognitive Trance and its fruits in the present life only.
In Hindi:
संस्कृत में सूत्र की भूमिका :उन अधिमात्र-उपाय तीव्रसंवेग वाले योगियों में (मृदुमध्याधिमात्रत्वात्) मृदु, मध्य और अधिमात्र भेद से, तीन प्रकार के संवेग होने से, (ततः अपि) उससे भी (विशेषः) शीघ्र समाधिलाभ और समाधिफल का वैशिष्ट्य है॥
मृदुतीव्रो मध्यतीव्रोऽधिमात्रतीव्र इति। ततोऽपि विशेषः तद्विशेषादपि मृदुतीव्रसंवेगस्यासन्नः, ततो मध्यतीव्रसंवेगस्यासन्नतरस्तस्मादधिमात्रतीव्रसंवेगस्याधिमात्रो-पायस्याप्यासन्नतमः समाधिलाभः समाधिफलं चेति॥
(मृदुतीव्रः) मृदुतीव्र, (मध्यतीव्रः) मध्यतीव्र और (अधिमात्रतीव्र इति) अधिमात्रतीव्र के भेद से तीव्रसंवेग = तीव्र परवैराग्य के तीन भेद होने से (ततः अपि विशेषः) उस पूर्वोक्त तीव्रसंवेग से भी विशिष्टता है। अर्थात् इन तीनों में समाधिलाभ और समाधिफल की आसन्नता से भी विशिष्टता है।
(तद्विशेषात्) उस विशेषता से (अपि) भी (मृदुतीव्रसंवेगस्य) मृदुतीव्रसंवेग वाले अधिमात्रोपाय योगी को (आसन्नः) समाधिलाभ और समाधिफल शीघ्र प्राप्त होता है। (ततः) उस मृदुतीव्रसंवेग वाले अधिमात्रोपाय योगी की अपेक्षा से (मध्यतीव्रसंवेगस्य) मध्यतीव्रसंवेग वाले अधिमात्रोपाय योगी को (आसन्नतरः) समाधिलाभ और समाधिफल शीघ्रतर = अधिक शीघ्र प्राप्त होता है। (तस्मात्) उस मध्यतीव्रसंवेग वाले अधिमात्रोपाय योगी की अपेक्षा से (अधिमात्रतीव्रसंवेगस्य अधिमात्रोपायस्यः) अधिमात्रतीव्रसंवेग वाले अधिमात्रोपाय योगी को (अपि) भी (आसन्नतमः) शीघ्रतम = सबसे शीघ्र (समाधिलाभः) समाधिलाभ (च) और (समाधिफलम् इति) समाधिफल = कैवल्य प्राप्त होता है॥
पिछले सूत्र में व्यासभाष्य के अनुसार अधिमात्र-उपाय और तीव्रसंवेग वाले योगी के लिए समाधिलाभ और समाधिफल की प्राप्ति अन्य सभी आठ प्रकार के योगियों की अपेक्षा से शीघ्र होती है। महर्षि पतञ्जलि तीव्रसंवेगता के भी आगे तीन भेद मृदु, मध्य और अधिमात्र रूप से करते हुए कहते है कि इन तीन भेदों के कारण से समाधिलाभ और समाधिफल की प्राप्ति में विशिष्टता है। जिन योगियों ने अधिमात्र रूप से श्रद्धादि उपायों से अष्टाङ्गयोग रूपी उपायों को अपनाया है और जिनका परवैराग्य का स्तर अन्यों योगियों की अपेक्षा से तीव्र है, उनमें भी तीव्र परवैराग्य के तीन भेद इस प्रकार से माने हैं — मृदुतीव्रसंवेग, मध्यतीव्रसंवेग और अधिमात्रतीव्रसंवेग वाले योगी। तीव्रसंवेग को तीव्र-परवैराग्य कहा गया है। अर्थात् परवैराग्य के तीव्रता में भी तीन भेद मन्दता, मध्यमता और अधिमात्रता रूप में किए गए है।
परवैराग्य क्या है ? योगसूत्र १.१६ के अनुसार पुरुष दर्शन अभ्यास से सत्त्वादि गुणों के प्रति तृष्णा का अभाव होना। इस सूत्र के भाष्य में महर्षि व्यास कहते हैं “ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराग्यम्” — ज्ञान की पराकाष्ठा को वैराग्य कहा गया है। जिन योगियों का जीवात्मा और परमात्मा के साक्षात्कार का अभ्यास जितना बढ़ता जाता है, उनका सत्त्वादि गुणों के प्रति तृष्णा का अभाव उतना ही अधिक होता जाता है। इसी प्रकार जिन योगियों का वेदादि सत्यशास्त्रों का व्यवहारिक ज्ञान जितना अधिक होता जाता है, उनका वैराग्य भी तीव्रता में अधिक होता जाता है। वेदादि सत्यशास्त्रों के शाब्दिक ज्ञान मात्र से कोई लाभ नहीं होने वाला। वेद में इस विषय में स्पष्ट कहा है —
ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न्यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः।
यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत्तद्वि॒दुस्त इ॒मे समा॑सते॥ ऋ० १.१६४.३९॥
अर्थात् जिस व्यापक अविनाशी सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर में सब विद्वान् और पृथिवी सूर्य आदि सब लोक स्थित हैं कि जिससे सब वेदों का मुख्य तात्पर्य है उस ब्रह्म को जो नहीं जानता वह ऋग्वेदादि से क्या कुछ सुख को प्राप्त हो सकता है ? नहीं-नहीं, किन्तु जो वेदों को पढ़ के धर्मात्मा योगी होकर उस ब्रह्म को जानते हैं वे सब परमेश्वर में स्थित होके मुक्तिरूपी परमानन्द को प्राप्त होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश तृतीय समुल्लास)
अतः वेद के मन्त्रों के ज्ञान को योगी जितना अधिक मनन, निदिध्यासन और साक्षात् करता हुआ उनके रहस्यों को अपने जीवन में उतारता है, उतना ही अधिक लाभ मिलता है। वेद में वर्णित प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप, गुणों को यथार्थता से जानता हुआ और अपनाता हुआ ही योगी उपरोक्त परवैराग्य की अधिकतम तीव्रता तक पहुँच सकता है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि असम्प्रज्ञात-समाधि के लाभ और समाधिफल की प्राप्ति का निकटतम साधन परवैराग्य का स्तर है। अतः जितने अधिक स्तर का परवैराग्य होगा उतना ही शीघ्र समाधिलाभ और समाधिफल की प्राप्ति होगी।
जिनका परवैराग्य अधिकतम तीव्र है वे ही अधिमात्रतीव्रसंवेग वाले योगी कहलाते हैं, अर्थात् उनको असम्प्रज्ञातसमाधि लाभ और समाधिफल = कैवल्य की प्राप्ति शीघ्रतम होती है। इनकी अपेक्षा से मध्यतीव्रसंवेग अर्थात् जिनका तीव्र परवैराग्य का स्तर मध्यम रहता है, उनको समाधिफल प्राप्ति में कुछ अधिक काल लगता है। अर्थात् ऐसे योगी को अपने परवैराग्य के स्तर को अधिकतम करने में जितना काल लगेगा उतना ही काल समाधिफल प्राप्ति में अधिक लगेगा। इसी प्रकार जिन योगियों का तीव्रसंवेग का स्तर मृदु है अर्थात् तीव्र परवैराग्य का स्तर मृदु होता है, उन योगियों को समाधिफल प्राप्ति में कुछ और अधिक काल लगता है। अर्थात् योगी को अपने परवैराग्य के स्तर को अधिकतम करने में जितना काल लगेगा उतना ही अधिक काल समाधिफल प्राप्ति में लगेगा।
अतः अधिमात्र स्तर पर उपायों को अपनाते हुए, तीव्रसंवेगता की प्राप्ति और तीव्रसंवेगता में भी अधिकतमता लाने के लिए योगी को प्रयत्न करना चाहिए, तभी समाधिसिद्धि और समाधिफल की प्राप्ति इसी जन्म में सम्भव हो पायेगी।